________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र पायामविक्खंभेणं, मूले एक्कतीस जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे ओयणसए कित्रिविसेसाहिया परिक्खेवेणं धरणियले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए देसूणे परिक्खेवेणं, सिहरतले तिण्णि जोयणसहस्साइं एगं च वावटें जोयणसयं किंचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं पण्णत्ता, मूले विस्थिण्णा मझे संखित्ता उपि तणुमा, गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्यंजणमया अच्छा जाव पत्तेयं पत्तयं पउमवरवेइयापरिक्खिता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता, वण्णयो। तेसि णं अंजणपव्ययाणं उरि पत्तेयं-पत्तेयं बहुसमरमणिज्जो भूमिभागो पग्णत्तो, से जहाणामएआलिंगपुक्खरेइ वा जाव सयंति / तेसि गं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्मदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सिद्धायतणा एगमेगं जोयणसयं आयामेणं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं वावत्तरि जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसंनिविट्ठा, वण्णओ। 183 (क) क्षोदोदकसमुद्र को नंदीश्वर नाम का द्वीप चारों ओर से घेर कर स्थित है। यह गोल और वलयाकार है। यह नन्दीश्वरद्वीप समचऋवालविष्कंभ से युक्त है। परिधि आदि के कथन से लेकर जोवोपपाद सूत्र तक सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए। भगवन् ! नंदीश्वरद्वीप के नाम का क्या कारण है ? गौतम ! नंदीश्वरद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियां यावत् विलपंक्तियां हैं, जिनमें इक्षुरस जैसा जल भरा हुआ है / उसमें अनेक उत्पातपर्वत हैं जो सर्व वज्रमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। गौतम ! दूसरी बात यह है कि नंदीश्वरद्वीप के चक्रवालविष्कंभ के मध्यभाग में चारों दिशाओं में चार अंजनपवंत कहे गये हैं। वे अजनपवंत चौरासी हजार योजन ऊचे, एक हजार योजन गहरे, मूल में दस हजार योजन से अधिक लम्बे-चौड़े, धरणितल में दस हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं। इसके बाद एक-एक प्रदेश कम होते-होते ऊपरी भाग में एक हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं। इनकी परिधि मूल में इकतीस हजार छह सौ तेवीस योजन से कुछ अधिक, धरणितल में इकतीस हजार छह सौ तेवीस योजन से कुछ कम और शिखर में तीन हजार एक सौ बासठ योजन से कुछ अधिक है। ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं, अतः गोपुच्छ के आकार के हैं / ये सर्वात्मना अंजनरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रत्येक पर्वत पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से वेष्टित हैं / यहां पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णनक कहना चाहिए। उन अंजनपर्वतों में से प्रत्येक पर बहुत सम और रमणीय भूमिभाग है। वह भूमिभाग मृदंग के मढ़े हुए चर्म के समान समतल है यावत् वहां बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियां निवास करते हैं यावत् अपने पुण्य-फल का अनुभव करते हुए विचरते हैं। उन समरमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग सिद्धायतन हैं, जो एक सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और बहत्तर योजन ऊँचे हैं, सैकड़ों स्तम्भों पर टिके हुए हैं आदि वर्णन सुधर्मसभा की तरह जानना चाहिए। 183. (ख) तेसि णं सिद्धायतणाणं पत्तेयं पत्तेय चउद्दिसि चत्तारि वारा पणत्ता-देवदारे, असुरदारे, णागदारे, सुवण्णदारे / तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org