________________ मानुषोतरपर्वत को वक्तव्यता] [41 भगवन् ! पुष्करवरद्वीप का विजयद्वार कहाँ है ? गौतम ! पुष्करवरद्वीप के पूर्वी पर्यन्त में और पुष्करोदसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम में पुष्करवरद्वीप का विजयद्वार है, अादि वर्णन जंबूद्वीप के विजयद्वार के समान कहना चाहिए। इसी प्रकार चारों द्वारों का वर्णन जानना चाहिए / लेकिन शोता शीतोदा नदियों का सद्भाव नहीं कहना चाहिये। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कितना है ? गौतम ! अड़तालीस लाख बावीस हजार चार सौ उनहत्तर (4822469) योजन का अन्तर है। (चारों द्वारों की मोटाई 18 योजन है। पुष्करवरद्वीप की परिधि 19289894 योजन में से 18 योजन कम करने पर 19289876 योजन को राशि को 4 से भाग देने पर उक्त प्रमाण निकल आता है।) पुष्करवरद्वीप के प्रदेश पुष्करवरसमुद्र से स्पृष्ट हैं और वे प्रदेश उसी के हैं, इसी तरह पुष्करवरसमुद्र के प्रदेश पुष्करवरद्वीप से छुए हुए हैं और उसी के हैं। पुष्करवरद्वीप और पुष्करवरसमुद्र के जीव मरकर कोई कोई उनमें उत्पन्न होते हैं और कोई कोई उनमें उत्पन्न नहीं भी होते हैं। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप पुष्करवरद्वीप क्यों कहलाता है ? गौतम ! पुष्करवरदीप में स्थान-स्थान पर यहां-वहां बहत से पद्मवक्ष. पद्मवन और पावतखण्ड नित्य कुसुमित रहते हैं तथा पद्म और महापद्म वृक्षों पर पद्म और पुंडरीक नाम के पल्योपम स्थिति वाले दो महद्धिक देव रहते हैं, इसलिए पुष्करवरद्वीप पुष्करवरद्वीप कहलाता है यावत् नित्य है। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप में कितने चन्द्र उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे-इत्यादि प्रश्न करना चाहिए? गौतम ! एक सौ चवालीस चन्द्र और एक सौ चवालोस सूर्य पुष्करवरद्वीप में प्रभासित होते हुए विचरते हैं / चार हजार बत्तीस (4032) नक्षत्र और बारह हजार छह सौ बहत्तर (12672) महाग्रह हैं / छियानवै लाख चवालीस हजार चार सौ (9644400) कोडाकोडी तारागण पुष्करवरद्वीप में शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। मानुषोत्तरपर्वत की वक्तव्यता 176. (प्रा) पुक्खरवरदीवस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्य णं माणसुत्तरे नाम पवए पण्णते, बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए, जे णं पुक्खरवरदीवं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ, तं जहा-अभितरपुक्खरद्धं च बाहिरपुक्खरद्धच / अभितरपुक्खरद्धे णं भंते ! केवइयं चक्कवालेणं परिक्खेवेणं पण्णते ? गोयमा ! अट्ठजोयण सयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं कोडी बायालीसा तीसं दोणि य सया अगुणवण्णा। पुक्खरवद्धपरिरओ एवं च मणुस्सखेत्तस्स // 1 // से केणोणं भंते ! एवं वुच्चइ अम्भितरपुक्खरद्धे य अम्भितरपुक्खरद्धे य ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org