Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन] [45 दो चन्द्र और दो सूर्यों का एक पिटक होता है। इस मान से मनुष्यलोक में चन्द्रों और सूर्यों के 66-66 (छियासठ-छियासठ) पिटक हैं। 1 पिटक जम्बूद्वीप में, 2 पिटक लवणसमुद्र में, 6 पिटक धातकीखण्ड में, 21 पिटक कालोदधि में और 36 पिटक अर्धपुष्करवरद्वीप में, कुल मिलाकर 66 पिटक सूर्यों के और 66 पिटक चन्द्रों के हैं // 4 // मनुष्यलोक में नक्षत्रों में 66 पिटक हैं। एक-एक पिटक में छप्पन छप्पन नक्षत्र हैं / / 5 / / मनुष्यलोक में महाग्रहों के 66 पिटक हैं / एक-एक पिटक में 176-176 महाग्रह हैं // 6 // इस मनुष्यलोक में चन्द्र और सूर्यों की चार-चार पंक्तियां हैं। एक-एक पंक्ति में 66-66 चन्द्र और सूर्य हैं / / 7 // इस मनुष्यलोक में नक्षत्रों की 56 पंक्तियां हैं / प्रत्येक पंक्ति में 66-66 नक्षत्र हैं // 8 // इस मनुष्यलोक में ग्रहों की 176 पंक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में 66-66 ग्रह हैं। ये चन्द्र-सूर्यादि सब ज्योतिष्क मण्डल मेरुपर्वत के चारों ओर प्रदक्षिणा करते हैं। प्रदक्षिणा करते हुए इन चन्द्रादि के दक्षिण में ही मेरु होता है, अतएव इन्हें प्रदक्षिणावर्तमण्डल कहा है। (मनुष्यलोकवर्ती सब चन्द्रसूर्यादि प्रदक्षिणावर्तमण्डल गति से परिभ्रमण करते हैं।) चन्द्र, सूर्य और ग्रहों के मण्डल अनवस्थित हैं (क्योंकि यथायोग रूप से अन्य मण्डल पर ये परिभ्रमण करते रहते हैं।) 177. (इ) नक्खत्ततारगाणं अवडिया मंडला मुणेयव्वा / तेवि य पयाहिणा-वत्तमेव मेलं अणुचरंति // 11 // रयणियरविणयराणं उड्ढे व अहे व संकमो णस्थि / मंडलसंकमण पुण अम्भितरबाहिरं तिरिए / / 12 / / रयणियरविणयराणं नक्खत्ताणं महग्गहाणं च। चारविसेसेण भवे सुहदुक्खविही मणुस्साणं // 13 // तेसि पविसंताणं तावक्खेत्तं तु वड्डए नियमा। तेणेव कमेण पुणो परिहायई निवखमंताणं // 14 // तेसि कलंबुयापुप्फसंठिया होई तारखेत्तपहा / अंतो य संकुया बाहिं वित्थडा चंदसूराणं // 15 // केणं वड्डइ चंदो परिहाणी केण होई चंदस्स / कालो वा जोण्हो वा केण अणुभावेण चंदस्स // 16 // किण्हं राहुविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं / चउरंगुलमप्यत्तं हिट्ठा चंदस्स तं चरइ // 17 // बाट्टि बाढि दिवसे दिवसे उ सुक्कपक्खस्स / / जं परिवड्ढेइ चंदो, खवेइ तं चेव कालेणं // 18 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org