________________ 28] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पंचाणउए सहस्से गंतूणं जोयणाणि उभश्रो वि। जोयणसहस्समेगं लवणे प्रोगाहओ होइ // 1 // पंचाणउईण लवणे गंतूण जोयणाणि उभओ वि / जोयणमेगं लवणे प्रोगाहेणं मुणेयन्वा // 2 // तात्पर्य यह हुआ कि 95 योजन जाने पर यदि एक योजन गहराई में वृद्धि होती है तो 95 गव्यत पर्यन्त जाने पर एक गव्यत को वद्धि,९५ धनुष पर्यन्त जाने पर एक धनुष की वद्धि होती है, यह सहज ही ज्ञात हो जाता है / यह बात गहराई को लेकर कही गई है। इसके प्रागे लवणसमुद्र की ऊंचाई की वृद्धि को लेकर प्रश्न किया गया है और उत्तर दिया गया है। प्रश्न किया गया है कि लवणसमुद्र के दोनों किनारों से प्रारम्भ करने पर कितनी-कितनी दूर जाने पर कितनी-कितनी जलवृद्धि होती है ? उत्तर में कहा गया है कि-लवणसमुद्र के पूर्वोक्त दोनों किनारों पर समतल भूभाग में जलवृद्धि अंगुल का असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है और आगे समतल से प्रदेशवृद्धि से जलवृद्धि क्रमशः बढ़ती हुई 95 हजार योजन जाने पर सात सौ योजन की वृद्धि होती है। उससे आगे दस हजार योजन के विस्तारक्षेत्र में सोलह हजार योजन की वृद्धि होती है। तात्पर्य यह है कि लवणसमुद्र के दोनों किनारों से 95 प्रदेश (सरेणु) जाने पर 16 प्रदेश की उत्सेधवृद्धि कही गई है / 95 बालाग्र जाने पर 16 बालाग्र की उत्सेधवृद्धि होती है। इसी तरह यावत् 95 हजार योजन जाने पर 16 हजार योजन की उत्सेधवृद्धि होती है। यहां त्रैराशिक भावना यह है कि 95 हजार योजन जाने पर सोलह (16) हजार योजन की उत्सेधवृद्धि होती है तो 95 योजन जाने पर कितनी उत्सेधवृद्धि होगी ? राशित्रय की स्थापना९५०००/१६०००/९५ दोनों-प्रथम और मध्यराशि के तीन तीन शून्य हटाने पर 95/16/95 की राशि रहती है। मध्यमराशि 16 को ठतीय राशि 95 से गुणा करने पर 1520 आते हैं। इसमें प्रथम राशि 95 का भाग देने पर 16 भागफल होता है / अर्थात् 95 योजन जाने पर 16 योजन की जलवृद्धि होती है / कहा है पंचाणउइसहस्से गंदणं जोयणाणि उभनो वि / उस्सेहेणं लवणो सोलस साहिस्सओ भणिओ // 1 // पंचणउई लवणे गंतूणं जोयणाणि उभओ वि। उस्सेहेणं लवणो सोलस किल जोयणे होइ // 2 // यदि 95 योजन जाने पर 16 योजन का उत्सेध है तो 95 गव्यूत जाने पर 16 गव्यूत का, 95 धनुष जाने पर 16 धनुष का उत्सेध भी सहज ज्ञात हो जाता है। गोतीर्थ-प्रतिपादन 171. लवणस्स णं भंते ! समुदस्स केमहालए गोतित्थे पण्णत्ते ? गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउइं पंचाणउई जोयणसहस्साइं गोतित्थं पण्णत्ते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org