________________ तृतीय प्रतिपत्ति : देवद्वीपादि में विशेषता] [25 आगे जाने पर सूर्यों के सूर्यद्वीप आते हैं / इनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में स्वयंभूरमणसमुद्र में असंख्यात हजार योजन ागे जाने पर प्राती हैं यावत् वहां सूर्यदेव हैं।' 168. अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधराइ वा णागराया खन्नाइ वा अग्धाइ वा सीहाइ वा विजाई वा हासवुट्टीइ वा ? हंता अत्थि ! जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे अस्थि वेलंधराइ वा णागराया अग्घा सोहा विजाई वा हासयुड्डीइ वा तहा णं बहिरेसु वि समुद्देसु अस्थि वेलंधराइ वा नागरायाइ वा अग्घाइ वा खन्नाइ वा सीहाइ वा विजाई वा हासवुड्डीइ वा ? णो तिणठे समठे। 168. हे भगवन् ! लवणसमुद्र में वेलंधर नागराज हैं क्या ? अग्घा, खन्ना, सीहा, विजाति मच्छकच्छप हैं क्या ? जल की वृद्धि और ह्रास है क्या ? गौतम ! हां हैं। हे भगवन् ! जैसे लवणसमुद्र में वेलंधर नागराज हैं, अग्घा, खन्ना, सीहा, विजाति ये मच्छकच्छप हैं ? वैसे अढ़ाई द्वीप से बाहर के समुद्रों में भी ये सब हैं क्या? हे गौतम ! बाह्य समुद्रों में ये नहीं हैं। 169. लवणे णं भंते ! कि समुद्दे ऊसिओदगे कि पत्थडोदगे किं खुभियजले कि अखुभियजले ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे ऊसिओदगे नो पत्थडोदगे, खुभियजले नो अक्खुभियजले। तहा णं बाहिरगा समुद्दा किं असिओदगा पत्थडोदगा खुभियजला अखभियजला? गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा नो असिओदगा पत्थडोदगा, न खुभियजला अक्खुभियजला पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठति / अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवो ओराला क्लाहका संसेयंति संमुच्छंति वा वासं वासंति वा? हंता अस्थि / जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवे ओराला बलाहका संसेयंति संमुच्छति वासं वासंति वा तहा णं बाहिरएसु वि समुद्देसु बहवे अोराला बलाहका संसेयंति संमुच्छांति वासं वासंति ? णो तिणठे समठे / 1. प्राह च मूलटीकाकारो अपि-"एवं शेषद्वीपगतचन्द्रादित्यानामपि द्वीपा अनन्तरसमुद्रेष्वेवगन्तव्या, राजधान्यश्च तेषां पूर्वापरतो असंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् गत्वा ततोऽस्मिन् सदृशनाम्नि द्वीये भवन्ति; अन्त्यानिमान् पंचद्वीपान् मुक्त्वा देव-नाग-यक्ष-भूतस्वयंभूरमणाख्यान् / न तेषु चन्द्रादित्यानां राजधान्यो अन्यस्मिन् द्वीपे, अपितु स्वस्मिन्नेव पूर्वापरतो वेदिकान्तादसंख्येयानि योजनसहस्राण्यवगाह्य भवन्तीति / " इह सूत्रेषु बहुधा पाठभेदा, परमेतावानेव सर्वत्राप्यर्थोऽनर्थभेदान्तरमित्येतद्व्याख्यानुसारेण सर्वेऽपि अनुगंतव्या न मोग्धव्यमिति / 2. प्राह य चूर्णिकृत्--"अग्पा खन्ना सीहा विजाई इति मच्छकच्छभा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org