________________ है और शब्दरूप मागम के प्रणेता गणधर हैं। अनन्त काल से अरिहन्त और उनके गणधरों की परम्परा चलती मा रही है। मतएव उनके उपदेश रूप मागम की परम्परा भी अनादि काल से चली आ रही है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि यह द्वादशांगी ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, सदाकाल से है, यह कभी नहीं है, ऐसा नहीं है / यह सदा थी, है और रहेगी। भावों की अपेक्षा यह ध्र व, नित्य, शाश्वत है। द्वादशांगी में बारह अंगों का समावेश है। आचारांग,सूयगडांग, ठाणांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, जाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृददशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दष्टिबाद, ये बारह अंग है। यही वादशांगी गणिपिटक है, जो साक्षात् तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट है। यह अंगप्रविष्ट पागम कहे जाते हैं, इनके अतिरिक्त अनंगप्रविष्ट-अंगबाह्य आगम वे हैं जो तीर्थंकरों के वचनों से अविरुद्ध रूप में प्रशातिशय-सम्पन्न स्थविर भगवंतों द्वारा रचे गए हैं। इस प्रकार जैनागम दो भागों में विभक्त हैं-अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट (अंगवाह्य)। प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम शास्त्र अनंगप्रविष्ट भागम है। दूसरी विवक्षा से बारह अंगों के बारह उपांग भी कहे गए हैं। तदनुसार पीपपातिक आदि को उपांग संज्ञा दी जाती है। प्राचार्य मलयगिरि ने जिन्होंने जीवाजीवाभिगम पर विस्तृत वृत्ति लिखी है, इसे तृतीय अंग–स्थानांग का उपांग कहा है। प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र की प्रादि में स्थविर भगवंतों को इस अध्ययन के प्ररूपक के रूप में प्रतिपादित किया गया है--- इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं, जिणाणुलोम, जिणप्पणीयं, जिणपरूवियं जिणक्खायं जिणाणुचिणं, जिणपण्णत्तं, जिणदेसियं, जिणपसत्थं, अणुव्वीइय, तं सद्दहमाणा, तं पत्तियमाणा, तं रोयमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमणाममज्झयणं पण्णवइंसु। समस्त जिनेश्वरों द्वारा अनुमत, जिनानुलोम जिनप्रणीत, जिनप्ररूपित, जिनाख्यांत, जिनानुचीर्ण, जिनप्रशप्त और जिनदेशित इस प्रशस्त जिनमत का चिन्तन करके, इस पर श्रद्धा, विश्वास एवं रुचि करके स्थविर भगवन्तों ने जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन की प्ररूपणा की। उक्त कथन द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि प्रस्तुत सूत्र की रचना स्थविर भगवन्तों ने की है। वे स्थविर भगवन्त तीर्थंकरों के प्रवचन के सम्यग्ज्ञाता थे। उनके वचनों पर श्रद्धा, विश्वास व रुचि रखने वाले थे। इससे यह ध्वनित किया गया है कि ऐसे स्थविरों द्वारा प्ररूपित आगम भी उसी प्रकार प्रमाणरूप हैं, जिस प्रकार सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर परमात्मा द्वारा प्ररूपित आगम प्रमाणरूप हैं। क्योंकि स्थविरों की यह रचना तीर्थंकरों के वचनों से अविरुद्ध है। प्रस्तुत पाठ में आए हुये जिनमत के विशेषणों का स्पष्टीकरण उक्त मूलपाठ के विवेचन में किया गया है। प्रस्तुत सूत्र का नाम जीवाजीवाभिगम है, परन्तु मुख्य रूप से जीव का प्रतिपादन होने से अथवा संक्षेप दृष्टि से यह सूत्र जीवाभिगम के नाम से जाना जाता है। 1. एयं दुवालसंगं गणिपिटगं ण क यावि णासि, ण कयावि ण भवइ, ण कयाविण भबिस्सइ, घुवं णिच्चं सासयं / -नन्दीसूत्र [10] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org