________________ 10] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हे गौतम ! लवणसमुद्र की शिखा चक्रवालविष्कंभ की अपेक्षा दस हजार योजन चौड़ी है और कुछ कम आधे योजन तक वह बढ़ती है और घटती है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र की प्राभ्यन्तर वेला को कितने हजार नागकुमार देव धारण करते हैं ? बाह्य वेला को कितने हजार नागकुमार देव धारण करते हैं ? कितने हजार नागकुमार देव अग्रोदक को धारण करते हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र की आभ्यन्तर वेला को बयालीस हजार नागकुमार देव धारण करते हैं / बाह्यवेला को बहत्तर हजार नागकुमार देव धारण करते हैं / साठ हजार नागकुमार देव अग्रोदक को धारण करते हैं / इस प्रकार सब मिलाकर इन नागकुमारों की संख्या एक लाख चौहत्तर हजार कही गई है। विवेचन-लवणसमुद्र की शिखा सब ओर से चक्रवालविष्कभ से समप्रमाण वाली और दस हजार योजन चक्रवाल विस्तार वाली है। वह शिखा कुछ कम अर्धयोजन (दो कोस) प्रमाण अतिशय से बढ़ती है और उतनी ही घटती है / इसकी स्पष्टता इस प्रकार है-- लवणसमुद्र में जम्बूद्वीप से और धातकीखण्ड द्वीप से पंचानवै-पंचानवै हजार योजन तक गोतीर्थ है। गोतीर्थ का अर्थ है तडागादि में प्रवेश करने का क्रमशः नीचे-नीचे का भूप्रदेश / मध्यभाग का अवगाह दस हजार योजन का है। जम्बूद्वीप की वेदिकान्त के पास और धातकीखण्ड की वेदिका के पास अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण गोतीर्थ है। इसके आगे समतल भूभाग से लेकर क्रमश: प्रदेशहानि से तब तक उत्तरोत्तर नीचा-नीचा भूभाग समझना चाहिए, जहां तक पंचानवै हजार योजन की दूरी पा जाय / पंचानवे हजार योजन की दूरी तक समतल भूभाग की अपेक्षा एक हजार योजन की गहराई है / इसलिए जम्बूद्वीपवेदिका और धातकीखण्डवेदिका के पास उस समतल भूभाग में जलवृद्धि अंगुलासंख्येय भाग प्रमाण होती है। इससे पागे समतल भूभाग में प्रदेशवृद्धि से जलवृद्धि क्रमशः बढ़ती जाननी चाहिए, जब तक दोनों ओर 95 हजार योजन की दूरी पा जाय। यहां समतल भूभाग की अपेक्षा सात सौ योजन की जलवद्धि होती है / अर्थात् वहां समतल भूभाग से एक हजार योजन की गहराई है और उसके ऊपर सात सौ योजन की जलवृद्धि होती है। उससे आगे मध्यभाग में दस हजार योजन विस्तार में एक हजार योजन की गहराई है और जलवृद्धि सोलह हजार योजन प्रमाण है। पाताल-कलशगत वायु के क्षुभित होने से उनके ऊपर एक अहोरात्र में दो बार कुछ कम दो कोस प्रमाण अतिशय रूप में उदक की वृद्धि होती है और जब पातालकलशगत वायु उपशान्त होता है, तब वह जलवृद्धि नहीं होती है / यही बात इन गाथाओं में कही है पंचाणउयसहस्से गोतित्थं उभयनो वि लवणस्स / जोयणसयाणि सत्त उदग परिवुड्डीवि उभयो वि // 1 // दसजोयणसाहस्सा लवणसिहा चक्कवालओ रुदा / सोलससहस्स उच्चा सहस्समेगं च प्रोगाढा // 2 // देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दुर्ग दुवे कालो। प्रइरेगं अइरेगं परिवइ हायए वा वि // 3 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org