________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र वायुकाय और अप्काय है और ऊपर के विभाग में केवल अप्काय है। इसके अतिरिक्त हे गौतम ! लवणसमुद्र में इन महापातालकलशों के बीच में छोटे कुम्भ की आकृति के छोटे-छोटे बहुत से छोटे पातालकलश हैं। वे छोटे पातालकलश एक-एक हजार योजन पानी में गहरे प्रविष्ट हैं, एक-एक सौ योजन की चौड़ाई वाले हैं और एक-एक प्रदेश की श्रेणी से वृद्धिंगत होते हुए मध्य में एक हजार योजन के चौड़े हो गये हैं और फिर एक-एक प्रदेश की श्रेणी से होन होते हुए मुखमूल में ऊपर एक-एक सौ योजन के चौड़े रह गये हैं।' उन छोटे पातालकलशों की भित्तियां सर्वत्र समान हैं और दस योजन की मोटी हैं, सर्वात्मना वज्रमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उनमें बहुत से जीव उत्पन्न होते हैं, निकलते हैं, बहुत से पुद्गल एकत्रित होते हैं, बिखरते हैं, उन पुद्गलों का चय-अपचय होता रहता है। वे भित्तियां द्रव्याथिक नय की अपेक्षा शाश्वत हैं और वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं। उन छोटे पातालकलशों में प्रत्येक में अर्धपल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं। उन छोटे पातालकलशों के तीन विभाग कहे गये हैं-१. निचला त्रिभाग, 2. मध्य का विभाग और 3. ऊपर का त्रिभाग / ये त्रिभाग तीन सौ तेतीस योजन और योजन का त्रिभाग (3333) प्रमाण मोटे हैं / इनमें से निचले त्रिभाग में वायुकाय है, मझले त्रिभाग में वायुकाय और अप्काय है. और ऊपर के त्रिभाग में अप्काय है। इस प्रकार पूर्वापर सब मिलाकर लवणसमुद्र में सात हजार पाठ सौ चौरासी (7884) पातालकलश कहे गये हैं। उन महापाताल और क्षुद्रपाताल कलशों के निचले और बिचले विभागों में बहुत से उर्ध्वगमन स्वभाव वाले अथवा प्रबल शक्ति वाले वायुकाय उत्पन्न होने के अभिमुख होते हैं, संमूर्छन जन्म से प्रात्मलाभ करते हैं, कंपित होते हैं, विशेषरूप से कंपित होते हैं, जोर से चलते हैं, परस्पर में घषित होते हैं, शक्तिशाली होकर इधर-उधर और ऊपर फैलते हैं, इस प्रकार वे भिन्न-भिन्न भाव में परिणत होते हैं तब वह समुद्र का पानी उनसे क्षुभित होकर ऊपर उछाला जाता है / जब उन महापाताल और क्षुद्रपाताल कलशों के निचले और बिचले त्रिभागों में बहुत से प्रबल शक्ति वाले वायुकाय उत्पन्न नहीं होते यावत् उस-उस भाव में परिणत नहीं होते तब वह पानी नहीं उछलता है। अहोरात्र में दो बार (प्रतिनियत काल में) और पक्ष में चतुर्दशी आदि तिथियों में (तथाविध जगत्स्वभाव से) लवणसमुद्र का पानी उन वायुकाय से प्रेरित होकर विशेष रूप से उछलता है / प्रतिनियत काल को छोड़कर अन्य समय में नहीं उछलता है। इसलिए हे गौतम ! लवणसमुद्र का जल चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या -संग्रहणीगाथा 1. उक्तं च---जोयणसयवित्थिण्णा मूले उरि दससयाणि मज्झमि / प्रोगाढा य सहस्सं दसजोयणिया य से कुड्डा // 2. उक्तं च-अन्ने वि य पायाला खडालंजरगसंठिया लवणे / अट्ठसया चुलसीया सत्त सहस्सा य सब्वे वि // 1 // पायालाण विभागा सव्वाण वि तिन्नि तिन्नि विन्नेया / हेद्विमभागे वाऊ, मज्झे बाऊ य उदगं य // 2 // उरि उदगं भणियं पढमगबीएसु वाउ संखुभियो। उड्ढं वामेइ उदगं परिवड्ढइ जलनिही खुभित्रो // 3 // ---संग्रहणीगाथाएं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org