________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [405 क्षुल्ल हिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत हैं ऊधर आते हैं और वहाँ से सर्व ऋतुओं के श्रेष्ठ सब जाति के फूलों, सब जाति के गंधों, सब जाति के माल्यों (गूंथी हुई मालाओं),सब प्रकार की प्रौषधियों और सिद्धार्थकों (सरसों) को लेते हैं। वहाँ से पद्मद्रह और पूण्डरीकद्रह की ओर से द्रहों का जल लेते हैं और वहाँ के उत्पल कमलों यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लेते हैं / वहाँ से हेमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में रोहित-रोहितांशा, सुवर्णकला और रूप्यकूला महानदियों पर आते हैं और वहाँ का जल और दोनों किनारों की मिट्टी ग्रहण करते हैं / वहाँ से शब्दापाति और माल्यवंत नाम के वट्टवैताढच पर्वतों पर जाते हैं और वहां के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फलों यावत् सौषधि और सिद्धार्थकों को लेते हैं / वहाँ से महाहिमवंत और रुक्मि वर्षधर पर्वतों पर जाते हैं, वहां के सब ऋतुओं के पुष्पादि लेते हैं। वहां से महापद्मद्रह और महापुंडरीकद्रह पर आते हैं वहाँ के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं। वहाँ से हरिवर्ष रम्यकवर्ष की हरकान्त-हरिकान्त-नरकान्तनारिकान्त नदियों पर आते हैं और वहाँ का जल ग्रहण करते हैं / वहां से विकटापाति और गंधापाति वट्ट वैताढय पर्वतों पर आते हैं और सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों को ग्रहण करते हैं। वहां से निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वतों पर पाते हैं और सब ऋतुओं के पुष्पादि ग्रहण करते हैं / वहां से तिगिछद्रह और केसरिद्रह पर पाते हैं और वहाँ के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं / वहाँ से पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह की शीता, शीतोदा महानदियों का जल और दोनों तट की मिट्टी ग्रहण करते हैं। वहां से सब चक्रवर्ती विजयों (विजेतव्यों) के सब मागध, वरदाम, और प्रभास नामक तीर्थों पर आते हैं और तीर्थों का पानी और मिट्टी ग्रहण करते हैं / वहां से सब वक्षस्कार पर्वतों पर जाते हैं। वहाँ के सब ऋतूमों के फल आदि ग्रहण करते हैं। वहाँ से सब अन्तर नदियों पर पाकर वहाँ का जल और तटों की मिट्टी ग्रहण करते हैं / इसके बाद वे मेरुपर्वत के भद्रशालवन में आते हैं / वहाँ के सर्व ऋतुओं के फूल यावत् सौंषधि और सिद्धार्थक ग्रहण करते हैं / वहाँ से नन्दनवन में आते हैं, वहाँ के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूल यावत् सौंषधियां और सिद्धार्थक तथा सरस गोशीर्ष चन्दन ग्रहण करते हैं। वहाँ से सौमनसवन में प्राते हैं और सब ऋतुओं के फूल यावत् सर्वौषधियाँ, सिद्धार्थक और सरस गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य फूलों की मालाएं ग्रहण करते हैं / वहाँ से पण्डकवन में आते हैं और सब ऋतुओं के फूल, सौषधियाँ, सिद्धार्थक, सरस गोशीर्ष चन्दन, दिव्य फूलों की माला और कपडछन्न किया हुमा मलय-चन्दन का चूर्ण आदि सुगन्धित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं / तदनन्तर सब ग्राभियोगिक देव एकत्रित होकर जम्बद्रीप के पूर्व दिशा के द्वार से निकलते हैं और उस उत्कृष्ट यावत दिव्य देवगति से चलते हुए तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के मध्य होते हुए विजया राजधानी में पाते हैं / विजया राजधानी की प्रदक्षिणा करते हुए अभिषेकसभा में विजयदेव के पास पाते हैं और हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय के शब्दों से उसे बधाते हैं / वे महार्थ, महार्घ और महार्ह विपुल अभिषेक सामग्री को उपस्थित करते हैं। 141. [4] तते गं तं विजयदेवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ तिणि परिसायो सत्त अणीया सत्त अणीयाहिवई सोलस आयरक्खवेवसाहस्सीओ अन्न य बहवे विजयरायहाणिवत्थस्वगा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहि साभाविएहि उत्तरवेउविएहि य वरकमलपइट्ठाणेहि सुरभिवरवारिपडिपुणेहि चंदणकयचच्चाएँहि आविद्धकंठगुणेहिं पउमुप्पलपिषाणेहिं करतलसुकुमालकोमलपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्साणं सोवणियाणं कलसाणं रुप्पमयाणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org