Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय प्रतिपत्ति :विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [411 गेय चार प्रकार के हैं (1) उत्क्षिप्त-प्रथम प्रारंभिक रूप / (2) प्रवृत्त-उत्क्षिप्त अवस्था से अधिक ऊंचे स्वर से गेय / (3) मन्दाय-मध्यभाग में मूर्छनादियुक्त मंद-मंद घोलनात्मक गेय / (4) रोचितावसान-जिस गेय का अवसान यथोचित रूप से किया गया हो। अभिनेय के चार प्रकार हैं (1) दार्टान्तिक (2) प्रतिश्रुतिक (3) सामान्यतोविनिपातिक और (4) लोकमध्यावसान / इनका स्वरूप नाट्यकुशलों द्वारा जानना चाहिए। 141. [5] तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सोओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराप्रो जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अण्णे य बहवे विजयरायहाणीवत्थव्वा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहिं बरकमलपट्ठाणेहिं जाव अट्ठसएणं सोवाग्णयाणं कलसाणं तं व जाव अट्ठसएणं भोमेज्जाणं कलसाणं सम्वोदगेहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वतबरेहि सध्यपुष्हिं जाव सम्वोसहिसिद्धत्थएहिं सम्विड्डोए जाव निग्घोसनाइयरवेणं महया महया इंदामिसेएणं अभिसिंचंति / अभिसिंचिता पत्तेयं पत्तेयं सिरसावत्तं अंजलि कट्ट एवं वयासी-जय जय नंदा! जय जय भद्दा ! जय जय नंदभट्टा! ते अजियं जिणेहि जियं पालयाहि, अजितं जिणेहि सत्तुपक्खं, जितं पालेहि मित्तपवखं, जियमजो वसाहि तं देव ! निरुवसम्गं इंवो इव देवाणं, चंदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, मरहो इव मणुयाणं बहूणि पलिओषमाइं बहूइं सागरोवमाणि चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं नाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं (विजयस्स देवस्स) विजयाए रायहाणीए अण्णेसि च बहूणं विजयरायहाणिवत्थव्वाणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव आणाईसर सेणावच्चं करेमाणे पालेमाणे विहराहि ति कट्ट महया महया सद्देणं जय जय सई परांजंति। [141] (5) तदनन्तर वे चार हजार सामानिक देव, परिवार सहित चार अग्र महिषियाँ यावत् सोलह हजार प्रात्मरक्षक देव तथा विजया राजधानी के निवासी बहुत से वाणव्यन्तर देव-देवियां उन श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित यावत् एक सौ आठ स्वर्णकलशों यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से, सर्वोदक से, सब मिट्टियों से, सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों से यावत् सर्वोषधियों और सिद्धार्थकों से सर्व ऋद्धि के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ भारी उत्सवपूर्वक उस विजयदेव का इन्द्र के रूप में अभिषेक करते हैं / अभिषेक करके वे सब अलग-अलग सिर पर अंजलि लगाकर इस प्रकार कहते हैं-हे नंद ! आपकी जय हो विजय हो ! हे भद्र ! आपकी जय-विजय हो! हे नन्द ! हे भद्र! आपकी जय-विजय हो। आप नहीं जीते हों को जीतिये, जीते हुओं का पालन करिये, अजित शत्रु पक्ष को जीतिये और विजितों का पालन कीजिये, हे देव ! जितमित्र पक्ष का पालन कीजिए और उनके मध्य में रहिए / देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागकुमारों में धरणेन्द्र की तरह, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती की तरह आप उपसर्ग रहित हों! बहुत से पल्योपम और बहुत से सागरोपम तक चार हजार सामानिक देवों का, यावत् सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों का, इस विजया राजधानी का और इस राजधानी में निवास करने वाले अन्य बहुत-से वानव्यन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org