________________ तृतीय प्रतिपत्ति : अंबूद्वीप क्यों कहलाता है ? ] [431 मोटाई आधा योजन है। यह दस योजन जल के अन्दर है और दो कोस [प्राधा योजन] जल से ऊपर है / दोनों मिलाकर साढे दस योजन की इसकी ऊँचाई है / उस कमल का स्वरूप-वर्णन इस प्रकार है-उसका मूल वज्रमय है, कंद रिष्ट रत्नों का है, नाल वैडूर्य रत्नों की है, बाहर के पत्ते वैडूर्यमय हैं, आभ्यन्तर पत्ते जंबूनद [स्वर्ण] के हैं, उसके केसर तपनीय स्वर्ण के हैं, स्वर्ण की कणिका है और नानामणियों की पुष्कर-स्तिबुका है। वह कणिका आधा योजन की लम्बी-चौड़ी है, इससे तिगुनी से कुछ अधिक इसकी परिधि है, एक कोस की मोटाई है, यह पूर्णरूप से कनकमयी है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है यावत् प्रतिरूप है। उस कर्णिका के ऊपर एक बहसमरमणीय भूमिभाग है इसका वर्णन मणियों की स्पर्शवक्तव्यता तक कहना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक विशाल भवन कहा गया है जो एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा और एक कोस से कुछ कम ऊँचा है / वह अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर आधारित है प्रादि वर्णनक कहना चाहिए। उस भवन की तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं-पूर्व में, दक्षिण में और उत्तर में। वे द्वार पांच सौ धनुष ऊँचे हैं, ढाई सौ धनुष चौड़े हैं और इतना ही इनका प्रवेश है। ये श्वेत हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तूपिका से युक्त हैं यावत् उन पर वनमालाएँ लटक रही हैं / 149. (2) तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहानामएआलिंगपुक्खरेइ वा जाव मणोणं वण्णओ। तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसमाए एत्थ णं मणिपेढिया पण्णत्ता, पंचधणसयाई प्रायामविक्खंभेणं अड्डाइज्जाइं घणुसयाई बाहल्लेणं सठवमणिमई। तीसे णं मणिपेढियाए उरि एस्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते, देवसयणिज्जस्स वण्णओ। से पउमे अण्णणं असएणं तदद्धच्चत्तप्पमाणमेसाणं पउमाणं स एणं तबद्धच्चत्तप्पमाणमेसाणं पउमाणं सवओ समंता संपरिक्खिते। ते गं पउमा अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं दस जोयणाई उम्वेहेण कोसं ऊसिया जलंताओ, साइरेगाइं ते दस जोयणाई सम्बग्गेणं पण्णत्ताई। - तेसि गं पउमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा–वइरामया मूला जाव गाणामणिमया पुक्खरस्थिभुगा। ताओ णं कणियाओ कोसं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं सम्वकणगामईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ / तासि कणियाणं उपि बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा जाव मणीणं वण्णो गंधो फासो। ___ तस्स गं पउमस्स अबरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतहहस्स कुमारस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं चत्तारि पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, एवं (एतेणं) सव्वो परिवारो नधरि पउमाणं भाणियव्यो। से गं पउमे अण्णेहि तिहिं पउमवरपरिक्खेवेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, तंजहाअग्मितरेणं मज्झिमेणं बाहिरएणं / अम्भितरए णं पउमपरिक्लेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सोप्रो पग्णत्ताओ, मजिसमए गं पउमपरिक्खेवे चत्तालोसं पउमसाहस्सोप्रोपण्णत्ताओ, बाहिरए णं पउमपरिक्खेवे अडयालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, एवामेव सपुग्वावरेणं एगा पउमकोडी वीसं च पउमसय सहस्सा भवंतीति मक्खाया। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ–णीलवंतहहे णीलवंतहहे ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org