________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जंबूद्वीप क्यों कहलाता है ?] [148] हे भगवन् ! उत्तरकुरु नामक क्षेत्र में यमक नामक दो पर्वत कहाँ पर कहे गये हैं ? गौतम ! नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में आठ सौ चौतीस योजन और एक योजन के भाग आगे जाने पर शीता नामक महानदी के पूर्व-पश्चिम के दोनों किनारों पर उत्तरकुरु क्षेत्र में दो यमक नाम के पर्वत कहे गये हैं / ये एक-एक हजार योजन ऊँचे हैं, 250 योजन जमीन में हैं, मूल में एक-एक हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं, मध्य में साढे सात सौ योजन लम्बे-चौड़े हैं और ऊपर पांच सौ योजन आयाम-विष्कंभ वाले हैं। मूल में इनकी परिधि तीन हजार एक सौ बासठ योजन से कुछ अधिक है। मध्य में इनकी परिधि दो हजार तीन सौ बहत्तर योजन से कुछ अधिक है और ऊपर पन्द्रह सौ इक्यासी योजन से कुछ अधिक की परिधि है। ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में पतले हैं / ये गोपुच्छ के आकार के हैं, सर्वात्मना कनकमय हैं, स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण [मृदु] हैं यावत् प्रतिरूप हैं / ये प्रत्येक पर्वत पद्मवरवेदिका से परिक्षिप्त [घिरे हुए हैं और प्रत्येक पर्वत वनखंड से युक्त हैं / दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। उन यमक पर्वतों के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है। उसका वर्णन करना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियाँ ठहरती हैं, लेटती हैं यावत् पुण्य-फल का अनुभव करती हुई विचरती हैं। उन दोनों बहुसमरमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं। वे प्रासादावतंसक साढे बासठ योजन ऊँचे और इकतीस योजन एक कोस के चौड़े हैं, ये गगनचुम्बी और ऊँचे हैं आदि वर्णनक कहना चाहिए। इनके भूमिभागों का, ऊपरी भीतरी छतों आदि का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। वहाँ दो योजन की मणिपीठिका है। उस पर श्रेष्ठ सिंहासन है। ये सिंहासन सपरिवार हैं अर्थात् सामानिक आदि देवों के भद्रासनों से युक्त हैं। यावत् उन पर यमक देव बैठते हैं। हे भगवन् ! ये यमक पर्वत यमक पर्वत क्यों कहलाते हैं ? गौतम ! उन यमक पर्वतों पर जगह-जगह यहाँ-वहाँ बहुत-सी छोटी छोटी बावडियां हैं, यावत् बिलपंक्तियां हैं, उनमें बहुत से उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र हैं जो यमक [पक्षिविशेष] के आकार के हैं, यमक के समान वर्ण वाले हैं और यावत् पल्योपम की स्थिति वाले दो महान् ऋद्धि वाले देव रहते हैं / वे देव वहाँ अपने चार हजार सामानिक देवों का यावत् यमक पर्वतों का, यमक राजधानियों का और बहुत से अन्य वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए यावत् उनका पालन करते हुए विचरते हैं / इसलिए हे गौतम ! वे यमक पर्वत यमक पर्वत कहलाते हैं। दूसरी बात हे गौतम ! ऐसी है कि ये यमक पर्वत शाश्वत हैं यावत् नित्य हैं। [अर्थात् इनका 'यमक' नाम शाश्वत हैं-सदा से है, सदा रहेगा।] हे भगवन् ! इन यमक देवों की यमका नामक राजधानियां कहाँ हैं ? गौतम ! इन यमक पर्वतों के उत्तर में तिर्यक् असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के पश्चात् प्रसिद्ध जम्बूद्वीप से भिन्न अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन आगे जाने पर यमक देवों की यमका नाम की राजधानियां हैं जो बारह हजार योजनप्रमाण वाली हैं आदि सब वर्णन विजया राजधानीवत् कहना चाहिए यावत् यमक नाम के दो महद्धिक देव उनके अधिपति हैं / इस कारण से ये यमक देव यमक देव कहलाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org