Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ ततीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप क्या कहलाता है ?] [433 पग्णासं जोयणाई विक्कमेणं मूले तिणि सोलसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, मझे योनि सत्ततोसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, उरि एगं अट्ठावण्णं जोयणसयं किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं; मूले विच्छिण्णा, मज्झे संखित्ता उपि तणुया गोपुच्छसंठाणसठिया सम्वकंचणमया, अच्छा, पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खिता। तेसि णं कंधणगपम्वयाणं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव आसयंतिः / तेसिं गं कंचणगपव्ययाण पत्तेयं पत्तेयं पासायाव.सगा सङ्घ बार्टि जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं इक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंमेणं मणिपेढिया दो जोणिया सीहासणं सपरिवारं। से केणठेणं भंते ! एवं उच्चइ-कंचणगपन्वया कंचणगपव्यया ? गोयमा ! कंचणगेसु णं पन्वएसुतस्थ तत्थ वावीसु उप्पलाई जाव कंचणगवण्णाभाई कंचणगा जाव देवा महिड्डिया जाव विहरति / उत्तरेणं कंचणगाणं कंचणियाओ रायहाणोओ अण्णम्मि जम्बद्दीवे तहेव सम्वं माणियव्वं / कहिं गं भंते ! उत्तराए कुराए उत्तरकुरु(हे पण्णत्ते ? गोयमा ! नीलवंतद्दहस्स वाहिणणं अट्टचोत्तोसे जोयणसए एवं सो चेव गमो यम्यो जो णोलवंतदहस्स सव्वेसि सरिसगो वहसरि नामा य देवा, सम्वेसि पुरस्थिम-पच्चत्थिमेणं कंचणगपवया दस बस एकप्पमाणा उत्तरेणं रायहागोओ अण्णम्मि जंबद्दीवे / / कहिं णं भंते ! चंबद्दहे एरावणदहे मालवंतहहे एवं एक्केको यग्यो। [150] नीलवंत द्रह के पूर्व-पश्चिम में दस योजन आगे जाने पर दस दस काञ्चनपर्वत कहे गये हैं। [ये दक्षिण और उत्तर श्रेणी में व्यवस्थित हैं] / ये कांचन पर्वत एक सौ एक सौ योजन ऊंचे, पच्चीस पच्चीस योजन भूमि में, मूल में एक-एक सौ योजन चौड़े, मध्य में पचहत्तर योजन चौड़े और ऊपर पचास-पचास योजन चौड़े हैं। इनकी परिधि मूल में तीन सौ सोलह योजन से कुछ अधिक, मध्य में दो सौ सैंतीस योजन से कुछ अधिक और ऊपर एक सौ अट्ठावन योजन से कुछ अधिक है / ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं, गोपुच्छ के आकार में संस्थित हैं, ये सर्वात्मना कंचनमय हैं, स्वच्छ हैं / इनके प्रत्येक के चारों ओर पावरवेदिकाएँ और वनखण्ड हैं। उन कांचन पर्वतों के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है, यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियां बैठती हैं आदि / उन प्रत्येक भूमिभागों में प्रासादातंसक कहे गये हैं। ये प्रासादावतंसक साढ़े बासठ योजन ऊँचे और इकतीस योजन एक कोस चौड़े हैं। इनमें दो योजन की मणिपीठिकाएँ हैं और सिंहासन हैं। ये सिंहासन सपरिवार हैं अर्थात् सामानिकदेव, अग्रमहिषियाँ आदि परिवार के .. भद्रासनों से युक्त हैं। हे भगवन् ! ये कांचनपर्वत कांचनपर्वत क्यों कहे जाते हैं ? गौतम ! इन कांचनपर्वतों की वाबडियों में बहुत से उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्रकमल हैं जो स्वर्ण की कान्ति और स्वर्ण-वर्ण वाले हैं यावत् वहाँ कांचनक नाम के महाद्धिक देव रहते हैं, यावत् विचरते हैं। इसलिए ये कांचनपर्वत कहे जाते हैं / इन कांचनक देवों की कांचनिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org