________________ 432] [जीवाजोवाभिगमसूत्र गोयमा! नीलवंतहहे णं दहे तत्य तत्य जाइं उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताई नीलवंतप्पभाई नीलवंतहहकुमारे य सो चेव गमो जाव नीलवंतहहे नीलवंतहहे। [149] [2] उस भवन में बहुसमरमरणीय भूमिभाग कहा गया है। वह आलिंगपुष्कर [मुरज-मृदंग] पर चढ़े हुए चमड़े के समान समतल है आदि वर्णन करना चाहिए। यह वर्णन मणियों के वर्ण, गंध और स्पर्श पर्यन्त पूर्ववत् करना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक मणिपीठिका है, जो पांच सौ धनुष की लम्बी-चौड़ी है और ढाई सौ योजन मोटी है और सर्वमणियों की बनी हुई है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशयनीय है, उसका वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए। वह कमल दुसरे एक सौ आठ कमलों से सब ओर से घिरा हया है। वे कमल उस कमल से आधे ऊँचे प्रमाण वाले हैं। वे कमल आधा योजन लम्बे-चौड़े और इससे तिगुने से कुछ अधिक परिधि वाले हैं / उनकी मोटाई एक कोस की है / वे दस योजन पानी में ऊंडे [गहरे हैं और जलतल से एक कोस ऊँचे हैं / जलांत से लेकर ऊपर तक समग्ररूप में वे कुछ अधिक [एक कोस अधिक] दस योजन के हैं / उन कमलों का स्वरूप वर्णन इस प्रकार है-वज्ररत्नों के उनके मूल हैं, यावत् नानामणियों की पुष्करस्तिबुका है। कमल की कणिकाएँ एक कोस लम्बी-चौड़ी हैं और उससे तिगुने से अधिक उनकी परिधि है, आधा कोस की मोटाई है, सर्व कनकमयी हैं, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उन कणिकाओं के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् मणियों के वर्ण, गंध और स्पर्श की वक्तव्यता कहनी चाहिए। उस कमल के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में और उत्तरपूर्व में नीलवंतद्रह के नागकुमारेन्द्र नागकुमार राज के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार पद्म [पद्मरूप आसन] कहे गये हैं। इसी तरह सब परिवार के योग्य पद्मों [पद्मरूप आसनों का कथन करना चाहिए। वह कमल अन्य तीन पद्मवरपरिक्षेप परिवेश] से सब ओर से घिरा हुआ है / वे परिवेश हैं-प्राभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य / आभ्यन्तर पद्म परिवेश में बत्तीस लाख पद्म हैं, मध्यम पद्मपरिवेश में चालीस लाख पद्म हैं और बाह्य पद्मपरिवेश में अड़तालीस लाख पद हैं / इस प्रकार सब पद्मों की संख्या एक करोड़ बीस लाख कही गई हैं। हे भगवन् ! नीलवंतद्रह नीलवंतद्रह क्यों कहलाता है ? गौतम ! नीलवंतद्रह में यहाँ वहाँ स्थान स्थान पर नीलवर्ण के उत्पल कमल यावत् शतपत्रसहस्रपत्र कमल खिले हुए हैं तथा वहाँ नीलवंत नामक नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज महद्धिक देव रहता है, इस कारण नीलवंतद्रह नीलवंतद्रह कहा जाता है। [इसके पश्चात् वृत्ति के अनुसार नीलवंतकुमार की नीलवंता राजधानी विषयक सूत्र है। उसका कथन विजया राजधानी की तरह कर लेना चाहिए।' काञ्चन पर्वतों का अधिकार 150. नीलवंतद्दहस्स णं पुरथिम-पच्चरिथमेणं दस जोयणाई अबाहार एस्थ गं दस दस कंचणमपध्वया पण्णत्ता। ते णं कंचणगपम्वया एगमेगं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं, पणवीसं पणवीसं पण्णासं जोयणाई उन्हेणं, मूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं मज्झे पण्णरि जोयणाई विक्खंभेणं उरि 1. उपलब्ध प्रतियों में राजधानी विषयक पाठ छूठा हुआ लगता है / वृत्ति के अनुसार राजधानी विषयक पाठ होना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org