Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जंबूद्वीप क्यों कहलाता है ? ] [427 बक्षस्कार पर्वतों का 500-500 याजन का प्रमाण घटा देने से तिरपन हजार योजन आते हैं। यही प्रमाण जीवा का है। उत्तरकुरुओं का धनुष्पृष्ठ दक्षिण में 6041813 योजन है। गन्धमादन और माल्यवन्त बक्षस्कार पर्वतों की लम्बाई का जो परिमाण है वही उत्तरकुरुषों का धनुष्पृष्ठ [परिधि] है / गंधमादन और माल्यवंत पर्वत का प्रत्येक का आयाम 30209 योजन है। दोनों का कुल प्रमाण 604181 योजन होता है। यही प्रमाण उत्तरकुरुषों के धनुष्पृष्ठ का है।' उत्तरकुरु क्षेत्र के स्वरूप के विषय में प्रश्न किये जाने पर सूत्रकार ने एकोरुक द्वीप की बक्तव्यता का अतिदेश किया है। अर्थात् पूर्वोक्त एकोरुक द्वीप के समान ही सब वक्तव्यता जाननी चाहिए। जो अन्तर है उसे सूत्रकार ने साक्षात् सूत्र द्वारा प्रकट किया है जो इस प्रकार है वे उत्तरकुरु के मनुष्य छह हजार धनुष अर्थात् तीन कोस के लम्बे हैं, 256 उनके पसलियां होती हैं, तीन दिन के अन्तर से आहार की अभिलाषा होती है, पल्योपमासंख्येय भाग कम [देशोन] तीन पल्योपम की जघन्य स्थिति और परिपूर्ण तीन पल्योपम की उत्कृष्ट प्रायु होती है और 49 दिन तक अपत्य-पालना करते हैं / शेष एकोरुक द्वीप के मनुष्यों की वक्तव्यतानुसार जानना चाहिए यावत् बे मनुष्य मर कर देवलोक में ही जाते हैं। उत्तरकुरुषों में जातिभेद को लेकर छह प्रकार के मनुष्य रहते हैं---१. पद्मगंध [पद्म जैसी गंध वाले], 2. मृगगन्ध [मृग जैसी गंध वाले], 3. अमम [ममत्वहीन], 4. सह [सहनशोल], 5. तेयालीसे [तेजस्वी] और 6. शनैश्चारी [धीरे चलने वाले] / वृत्ति के अनुसार उत्तरकुरु क्षेत्र को लेकर जो-जो विषय कहे गये हैं, उनको संकलित करने वाली तीन गाथाएँ इस प्रकार हैं उसुजीवाधणपढें भूमी गुम्मा य हेरुउद्दाला। तिलगलयावणराई रुक्खा मणुया य आहारे / / 1 / / गेहा गामा य असी हिरण्णराया य दास माया य / परिवेरिए य मित्ते विवाह मह नट्र सगडा य / / 2 / / आसा गावो सीहा साली खाणू य गड्डदंसाही / गहजुद्ध रोगठिइ उव्वट्टणा य अणुसज्जणा चेव / / 3 / / उक्त गाथाओं का भावार्थ इस प्रकार है सबसे प्रथम उत्तरकुरु के विषय में इषु, जीवा और धनुपृष्ठ का प्रतिपादन है / फिर भूमि विषयक कथन है, तदनन्तर गुल्म का वर्णन, तदनन्तर हेरुताल आदि वनों का वर्णन, फिर उद्दाल आदि द्रुमों का वर्णन, फिर तिलक आदि वृक्षों का, लताओं का और वनराजि का वर्णन है। इसके 1. 'आयामो सेलाणं दोण्हवि मिलिगो कुरुणधणु पुढे / ' 2. वृत्तिकार ने उत्तरकुरु के प्राकार-भाव-प्रत्यवतार की मूल पाठ सहित विस्तृत व्याख्या की है। इससे प्रतीत होता हैं कि उनके सामने जो मूलप्रतियां रही हैं उनमें मूलपाठ में ही पूरा वर्णन होना चाहिए। वर्तमान में उपलन्ध प्रतियों में अतिदेश वाला पाठ है। सूत्रकार ने एकोरुक द्वीप का जहाँ वर्णन किया है वहाँ वत्तिकार ने उसकी व्याख्या न करते हुए केवल यह लिखा है कि उत्तरकुरु वाली व्याख्या यहाँ समझ लेनी चाहिए। यहाँ विचारणीय यह है कि आगे प्राने वाले विषय का पहले अति देश क्यों किया है वत्तिकार ने ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org