________________ 426] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तरह अर्ध गोलाकार है। इसका विष्कम्भ [विस्तार-चौड़ाई] ग्यारह हजार आठ सौ बयालीस योजन और एक योजन का भाग [1184211 योजन] है / इसकी जीवा पूर्व-पश्चिम तक लम्बी है। और दोनों ओर से वक्षस्कार पर्वतों को छूती है। पूर्व दिशा के छोर से पूर्व दिशा के वक्षस्कार पर्वत और पश्चिम दिशा के छोर से पश्चिम दिशा के वक्षस्कार पर्वत को छूती है। यह जीवा तिरपन हजार [53000 योजन लम्बी है / इस उत्तरकुरा का धनुष्पृष्ठ दक्षिण दिशा में साठ हजार चार सौ अठारह योजन और है योजन [604181 योजन है / यह धनुष्पृष्ठ परिधि रूप है। हे भगवन् ! उत्तरकुरा का आकारभाव-प्रत्यवतार [स्वरूप] कैसा कहा गया है ? गौतम ! उत्तरकुरा का भूमिभाग बहुत सम और रमणीय है / वह भूमिभाग आलिंगपुष्कर [मुरज-मृदंग] के मढे हुए चमड़े के समान समतल है- इत्यादि सब वर्णन एकोरुक द्वीप की वक्तव्यता के अनुसार कहना चाहिए यावत् हे अयुष्मान श्रमण ! वे मनुष्य मर कर देवलोक में उत्पन्न होते हैं। अन्तर इतना है कि इनकी ऊँचाई छह हजार धनुष [तीन कोस] की होती है / दो सौ छप्पन इनकी पसलियां होती हैं / तीन दिन के बाद इन्हें आहार की इच्छा होती है। इनकी जघन्य स्थिति पल्योपम तवां भाग कम-देशोन तीन पल्योपम की है और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है। ये 49 दिन तक अपत्य की अनुपालना करते हैं / शेष एकोरुक मनुष्यों के समान जानना चाहिए। उत्तराकुरा क्षेत्र में छह प्रकार के मनुष्य पैदा होते हैं, यथा--१. पद्मगंध, 2. मृगगन्ध, 3. अमम, 4. सह, 5. तेयालीस [तेजस्वी] और 6. शनैश्चारी। विवेचन-उत्तरकुरु क्षेत्र पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है और उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ [चौड़ा] है / इसका संस्थान अष्टमी के चन्द्रमा जैसा अर्ध गोलाकार है / इसका विस्तार 1184221 योजन का उत्तर-दक्षिण में है। यह इस प्रकार फलित होता है-- महाविदेह क्षेत्र में मेरु के उत्तर की ओर उत्तरकुरु नाम का क्षेत्र है। दक्षिण की ओर दक्षिणकुरु है / अत: महाविदेह क्षेत्र का जो विस्तार है उसमें से मेरुपर्वत के विस्तार को कम कर देने से जीवा का विस्तार बनता है / उसे आधा करने पर जो प्रमाण आता है वह दक्षिणकुरु और उत्तरकुरु का विस्तार होता है।' ___ महाविदेह क्षेत्र का विस्तार 33684 योजन है / इसमें मेरु का विस्तार 10000 योजन मटा देना चाहिए, तब 236843 बनते हैं / इसके दो भाग करने पर 11842% योजन होता है / यही उत्तरकुरु और दक्षिणकुरु का विस्तार है / इसकी जीवा [प्रत्यंचा] उत्तर में नील वर्षधर पर्वत के समीप तक विस्तृत है और पूर्व पश्चिम तक लम्बी है। यह अपने पूर्व दिशा के छोर से माल्यवंत वक्षस्कार पर्वत को छूती है और पश्चिम दिशा के छोर से गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत को छूती है / यह जीवा 53000 [तिरपन हजार] योजन लम्बी है / इसकी लम्बाई का प्रमाण इस प्रकार फलित होता है-मेरुपर्वत की पूर्वदिशा और पश्चिम दिशा के भद्रशाल वनों की प्रत्येक की लम्बाई 22000 [बावीस हजार] योजन की है, दोनों की 44000 योजन हुई / इसमें मेरुपर्वत के विष्कंभ 10000 [दस हजार] योजन मिला देने से 54000 [चौपन हजार] योजन होते हैं / इस प्रमाण में से दोनों 1. 'वइदेहा विक्खंभा मंदर विखंभ सोहियपद्धतं कुरुविक्खंभं जाणसु'। 2. 'मंदरपुव्वेणायया वीससहस्स भइसालवणं दुगुणं मदरमहियं दुसेलरहियं च कुरुजीवा।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org