________________ तृतीय प्रतिपत्ति :विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक [413 माइ, परिणिक्लमित्ता जेणेव गंवापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता गंदं पुक्खरिणि अणुप्पयाहिणी करेमाणे पुरथिमिल्लेणं वारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता पुरथिमिल्लेणं तिसोपाणपडिरूवगेणं पच्चोल्हइ, पच्चोरहित्ता हत्थं पायं पक्खालेइ, पक्खालित्ता एगं महं रययामयं विमलसलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहागिइसमाणं भिंगारं पगिण्हह, भिंगारं पगिणिहत्ता जाई तत्थ उप्पलाइं पउमाई नाव सयपत्तसहस्सपत्ताई ताई मिण्हइ, गिहित्ता गंदाओ पुक्खरिणीओ पच्चत्तरेइ पच्चुत्तरित्ता जेणेव सिद्वायतणे तणेव पहारेत्थ गमणाए। [142] (1) तब वह विजयदेव शानदार इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त हो जाने पर सिंहासन से उठता है और उठकर अभिषेकसभा के पूर्व दिशा के द्वार से बाहर निकलता है और अलंकारसभा की ओर जाता है और अलंकारसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है / प्रवेश कर जिस ओर सिंहासन था उस ओर पाकर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठा / तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिकपर्षदा के देवों ने पाभियोगिक देवों को बुलाया और ऐसा कहा-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही विजयदेव का आलंकारिक भाण्ड (सिंगारदान) लामो।' वे आभियोगिक देव पालंकारिक भाण्ड लाते हैं / तब विजयदेव ने सर्वप्रथम रोएंदार सुकोमल दिव्य सुगन्धित गंध काषायिक (तौलिये) से अपने शरीर को पोंछा / शरीर पोंछ कर सरस गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर लेप लगाया / लेप लगाने के पश्चात् श्वास की वायु से उड़ जाय ऐसा, नेत्रों को हरण करने वाला, सुन्दर रंग और मृदु स्पर्श युक्त, घोड़े की लाला (लार) से अधिक मृदु और सफेद, जिसके किनारों पर सोने के तार खचित हैं, अाकाश और स्फटिकरत्न की तरह स्वच्छ, अक्षत ऐसे दिव्य देवदूष्य-युगल को धारण किया / तदनन्तर हार पहना, और एकावली, मुक्तावली, कनकावली और रत्नावली हार पहने, कड़े, त्रुटित (भुजबंद), अंगद (बाहु का प्राभरण) केयूर दसों अंगुलियों में अंगूठियाँ, कटिसूत्र (करधनी-कंदोरा), त्रि-अस्थिसूत्र (आभरण विशेष) मुरवी, कंठमुरवी, प्रालंब (शरीर प्रमाण स्वर्णाभूषण) कुण्डल, चूडामणि और नाना प्रकार के बहुत रत्नों से जड़ा हुआ मुकुटधारण किया। ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम और संघातिम-इस प्रकार चार तरह की मालाओं से कल्पवृक्ष की तरह स्वयं को अलंकृत और विभूषित किया। फिर दर्दर मलय चन्दन की सुगंधित गंध से अपने शरीर को सुगंधित किया और दिव्य सुमनरत्न (फूलों की माला) को धारण किया। तदनन्तर वह विजयदेव केशालंकार, वस्त्रालंकार, माल्यालंकार और आभरणालंकार-ऐसे चार अलंकारों से अलंकृत होकर और परिपूर्ण अलंकारों से सज्जित होकर सिंहासन से उठा और प्रालंकारिक सभा के पूर्व के द्वार से निकलकर जिस अोर व्यवसायसभा है, उस ओर आया। व्यवसायसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ और जहाँ सिंहासन था उस ओर जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा। तदनन्तर उस विजयदेव के आभियोगिक देव पुस्तकरत्न लाकर उसे अर्पित करते हैं। तब बह विजयदेव उस पुस्तकरत्न को ग्रहण करता है, पुस्तकरत्न को अपनी गोद में लेता है, पुस्तकरत्न को खोलता है और पुस्तकरत्न का वाचन करता है / पुस्तकरत्न का वाचन करके उसके धार्मिक मर्म को ग्रहण करता है (उसमें अंकित धर्मानुगत व्यवसाय को करने की इच्छा करता है)। तदनन्तर पुस्तकरत्न को वहाँ रखकर सिंहासन से उठता है और व्यवसायसभा के पूर्ववर्ती द्वार से बाहर निकल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org