Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [421 वंडपाणिणो पासपाणिणो णीलपोयरत्तचायचारुचम्मखग्गदंडपासवरधरा आयरक्खा रक्खोवगा गुसा गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं पत्तेयं समयओ विणयओ किंकरभूयाविव चिठ्ठति / तए णं से विजए देवे चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सोणं विजयस्स णं वारस्स विजयाए रायहाणीए, अण्णेसि च बहूणं विजयाए रायहाणीए वत्थव्वगाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणा-ईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनट्ट- - गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-धण-मुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं दिवाइं भोग-भोगाई भुजमाणे विहरइ / विजयस्स णं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता / विजयस्स णं देवस्स सामाणियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? एग पलिओवमं ठिती पग्णता / एवं महड्डिए एवं महज्जुई एवं महम्बले एवं महायसे एवं महासुक्खे एवं महाणुभागे विजए देवे देवे। [143] तब उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव पश्चिमोत्तर, उत्तर और उत्तरपूर्व में पहले से रखे हए चार हजार भद्रासनों पर अलग-अलग बैठते हैं। उस विजयदेव हिषियाँ पूर्व दिशा में पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठती हैं / उस विजयदेव के दक्षिणपूर्व दिशा में प्राभ्यन्तर पर्षदा के आठ हजार देव अलग-अलग पूर्व से ही रखे हुए भद्रासनों पर बैठते हैं / उस विजयदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम पर्षदा के दस हजार देव पहले से रखे हुए अलगअलग भद्रासनों पर बैठते हैं / दक्षिण-पश्चिम की ओर बाह्य पर्षदा के बारह हजार देव पहले से रखे अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। उस विजयदेव के पश्चिम दिशा में सात अनीकाधिपति पूर्व में रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं / उस विजयदेव के पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पहले से ही रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। पूर्व में चार हजार आत्मरक्षक देव, दक्षिण में चार हजार प्रात्मरक्षक देव, पश्चिम में चार हजार प्रात्मरक्षक देव और उत्तर में चार हजार आत्मरक्षक देव पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं / वे आत्मरक्षक देव लोहे की कीलों से युक्त कवच को शरीर पर कस कर पहने हुए हैं, धनुष की पट्टिका [मुष्ठिग्रहण स्थान] को मजबूती से पकड़े हुए हैं, उन्होंने गले में ग्रैवेयक [ग्रीवाभरण] और विमल सुभट चिह्नपट्ट को धारण कर रखा है, उन्होंने आयुधों और शस्त्रों को धारण कर रखा है, आदि मध्य और अन्त—इन तीन स्थानों में नमे हुए और तीन संधियों वाले और वज्रमय कोटि वाले धनुषों को लिये हुए हैं और उनके तूणीरों में नाना प्रकार के बाण भरे हैं। किन्हीं के हाथ में नीले बाण हैं, किन्हीं के हाथ में पीले बाण हैं, किन्हीं के हाथों में लाल बाण हैं, किन्हीं के हाथों में धनुष है, किन्हीं के हाथों में चारु [प्रहरण विशेष] है, किन्हीं के हाथों में चर्म [अंगूठों और अंगुलियों का आच्छादन रूप] है, किन्हीं के हाथों में दण्ड है, किन्हीं के हाथों में तलवार है, किन्हीं के हाथों में पाश [चाबुक है और किन्हीं के हाथों में उक्त सब शस्त्रादि हैं / वे आत्मरक्षक देव रक्षा करने में दत्तचित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org