________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [419 तए गं से विजए देवे तेसिणं आभिमोगियाणं देवाणं अंतिए एयमलैं सोच्चा णिसम्म हट्टत?चित्तमाणदिए जाव हयहियए जेणेव नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागरिछत्ता पुरस्थिमिल्लेणं तोरणेणं जाव हत्थपायं पक्खालेइ, पक्खालित्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए णंदापुक्खरिणीओ पच्चत्तरइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव पहारेस्थ गमणाए। तए णं विजए देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाय सोलसहि प्रायरक्खदेवसाहस्सोहिं सविडोए जाय णिग्घोसणादियरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सभं सुहम्मं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता सोहासणवरगए पुरच्छिमाभिमुहे सण्णिसण्णे / [142] (4) तब वह विजयदेव अपने चार हजार सामानिक देवों आदि अपने समस्त परिवार के साथ, यावत् सब प्रकार की ऋद्धि के साथ वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मा सभा की ओर आता है और उसकी प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है / प्रवेश करने पर जिन-अस्थियों को देखते ही प्रणाम करता है और जहाँ मणिपीठिका है, जहाँ माणवक चैत्यस्तंभ है और जहाँ वज्ररत्न की गोल वर्तुल मंजूषाएँ हैं, वहाँ पाता है और लोमहस्तक लेकर उन गोल-वर्तुलाकार मंजूषाओं का प्रमार्जन करता है और उनको खोलता है, उनमें रखी हुई जिन-अस्थियों का लोमहस्तक से प्रमार्जन कर सुगन्धित गन्धोदक से इक्कीस बार उनको धोता है, सरस गोशीष चन्दन कालेप करता है, प्रधान और श्रेष्ठ गंधों और मालाओं से पूजता है और धूप देता है / तदनन्तर उनको उन गोल वर्तुलाकार मंजूषाओं में रख देता है / इसके बाद माणवक चैत्यस्तंभ का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है, फूल चढ़ाता है, यावत् लम्बी लटकती हुई फूलमालाएँ रखता है, कचग्राहग्रहीत और करतल से विमुक्त हुए बिखरे पांच वर्षों के फूलों से पुष्पोपचार करता है, धूप देता है / इसके बाद सुधर्मा सभा के मध्यभाग में जहाँ सिंहासन है वहाँ आकर सिंहासन का प्रमार्जन आदि पूर्ववत् अर्चना करता है। इसके बाद जहाँ मणिपीठिका और देवशयनीय है वहाँ आकर पूर्ववत् पूजा करता है। इसी प्रकार क्षुलल्क महेन्द्रध्वज की पूजा करता है / इसके बाद जहाँ चौपालक नामक प्रहरणकोष शिस्त्रागार है वहाँ पाकर शस्त्रों का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, उदकधारा से सिंचन कर, चन्दन का लेप लगाकर, पुष्पादि चढ़ाकर धूप देता है / इसके पश्चात् सुधर्मा सभा के दक्षिण द्वार पर आकर पूर्ववत् पूजा करता है, फिर दक्षिण द्वार से निकलता है / इससे आगे सारी वक्तव्यता सिद्धायतन की तरह कहना चाहिए यावत् पूर्व दिशा की नंदापुष्करिणी की अर्चना करता है। सब सभाओं की पूजा का कथन सुधर्मा सभा की तरह जानना चाहिए / अन्तर यह है कि उपपात सभा में देवशयनीय की पूजा का कथन करना चाहिए और शेष सभाओं में सिंहासनों की पूजा का कथन करना चाहिए / ह्रद की पूजा का कथन नंदापुष्करिणी की तरह करना चाहिए / व्यवसायसभा में पुस्तकरत्न का लोमहस्तक से प्रमार्जन, दिव्य उदकधारा से सिंचन, सरस गोशीर्ष चन्दन से अनुलिपन, प्रधान एवं श्रेष्ठ गंधों और माल्यों से अर्चन करता है। तदनन्तर सिंहासन का प्रमार्जन यावत धप देता है। शेष सब कथन पूर्ववत चाहिए / ह्रद का कथन नंदापुष्करिणी की तरह करना चाहिए। तदनन्तर जहाँ बलिपीठ है, वहाँ जाता है और वहाँ अर्चादि करके आभियोगिक देवों को बुलाता है और उन्हें कहता है कि 'हे करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org