________________ तुतीय प्रतिपत्ति: विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक [415 दारचेडीओ य सालमंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थएणं पमज्जद, पमज्जित्ता बहुमज्झदेसभाए सरसेणं गोसोसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं अणुलिपइ, अलिपित्ता चच्चइ दलयइ, दलइत्ता पुप्फारहणं जाब आभरणावहणं करेइ, करिता आसत्तोसत्तविउलवट्टयग्घारियमल्लवामकलावं करेइ, करित्ता कयग्गाहगहिय जाब पुष्फयुजोक्यारकलियं करेइ, करेत्ता धूवं दलयइ, वलइत्ता जेणेव मुहमंडवस्स बहुमजसदेसभाए तेणेव उवागच्छद, उवागच्छिसा बहुमजसदेसमाए लोमहत्थेणं पमज्जइ, पमज्जिता दिवाए उवगधाराए अम्भुक्खेइ, अम्भक्खिता सरसेण गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं आलिहइ, मालिहिता चच्चए बलयह, कयग्गाह० जाव पूर्व दलयइ, दलहत्ता जेणेव मुहमंडवगस्स पच्चस्थिमिल्ले बारे तेणेव उवागच्छा। [142] (2) तदनन्तर विजयदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् और अन्य भी बहुतसारे वानव्यन्तर देव और देवियां कोई हाथ में उत्पल कमल लेकर यावत् कोई शतपत्र सहस्रपत्र कमल हाथों में लेकर विजयदेव के पीछे-पीछे चलते हैं / उस विजयदेव के बहुत सारे आभियोगिक देव और देवियां कोई हाथ में कलश लेकर यावत् धूप का कडुच्छुक हाथ में लेकर विजयदेव के पीछे-पीछे चलते हैं। तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों के साथ यावत् अन्य बहुत-सारे वानव्यन्तर देवों और देवियों के साथ और उनसे घिरे हुए सब प्रकार की ऋद्धि और सब प्रकार की युति के साथ यावत् वाद्यों की गूजती हुई ध्वनि के बीच जिस ओर सिद्धायतन था, उस ओर पाता है और सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से सिद्धायतन में प्रवेश करता है और जहां देवछंदक था वहाँ पाता है और जिन प्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम करता है। फिर लोमहस्तक लेकर जिन प्रतिमाओं का प्रमार्जन करता है और सुगंधित गंधोदक से उन्हें नहलाता है, दिव्य सुगंधित गंधकाषायिक (तौलिए) से उनके अवयवों को पोंछता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का उनके अंगों पर लेप करता है, फिर जिनप्रतिमानों को अक्षत, श्वेत और दिव्य देवदूष्य-युगल पहनाता है और श्रेष्ठ, प्रधान गंधों से, माल्यों से उन्हें पूजता है। पूजकर फूल चढ़ाता है, गंध चढ़ाता है, मालाएँ चढ़ाता है-वर्णक (केसरादि) चूर्ण और आभरण चढ़ाता है / फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई, विपुल और गोल बड़ी-बड़ी मालाएँ चढ़ाता है / तत्पश्चात् स्वच्छ, सफेद, रजतमय और चमकदार चावलों से जिन माओं के आगे पाठ-पाठ मंगलों का आलेखन करता है / वे पाठ मंगल हैं-स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण / पाठ मंगलों का पालेखन करके कचग्राह से गृहीत और करतल से मुक्त होकर बिखरे हुए पांच वर्षों के फूलों से पुष्पोपचार करता है (फूल पूजा करता है) / चन्द्रकान्त मणि-वज्रमणि और बैडूर्यमणि से युक्त निर्मल दण्ड वाले, कंचन-मणि और रत्नों से विविधरूपों में चित्रित, काला अगुरु श्रेष्ठ कुंदरुक्क और लोभान के धूप की उत्तम गंध से युक्त, धूप की वाती को छोड़ते हुए वैडर्यमय कडुच्छक को लेकर सावधानी के साथ धूप देकर सात आठ पांव पीछे सरक कर जिनवरों की एक सौ आठ विशुद्ध ग्रन्थ (शब्द संदर्भ) युक्त, महाछन्दों वाले, अर्थयुक्त और अपुनरुक्त स्तोत्रों से स्तुति करता है / स्तुति करके बायें घुटने को ऊंचा रखकर तथा दक्षिण (दायें) घुटने को जमीन से लगाकर तीन बार अपने मस्तक को जमीन पर नमाता है, फिर थोड़ा ऊँचा उठाकर अपनी कटक और त्रुटित (बाजुबंद) से स्तंभित भुजाओं को संकुचित कर हाथ जोड़ कर, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोलता है-'नमस्कार हो अरिहन्त भगवन्तों को यावत जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org