________________ 404] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जाव सम्बोसहिसिद्धत्थए य सरसं गोसीसचंदणं गिण्हंति, गिहित्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छत्ति, उवागच्छित्ता सव्वतवरे य जाव सम्वोसहिसिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणवामं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव पंडगवणे तेणामेव समुवागच्छति समुवागच्छित्ता सम्वतुवरे जाव सव्वोसहिसिद्धथए सरसं य गोसीसचंदणं दिध्वं च सुमणोदामं दद्दरयमलयसुगंधिए य गंधे गेण्हंति, गेण्हित्ता एगओ मिलंति, मिलित्ता जंबुद्दीवस्स पुरथिमिल्लेणं वारेणं णिग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाय दिग्वाए देवगईए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मसं-मज्मेणं बीयीवयमाणा वोइवयमाणा जेणेव विजया रायहाणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विजयं राजहाणि अणुप्पयाहिणं करेमाणा करेमाणा जेणेव अभिसेयसभा जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट जएणं विजएणं वद्वाति; विजयस्स देवस्स तं महत्वं महग्धं महरिहं विउलं अभिसेयं उपट्ठति / [141] (3) तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिक पर्षद के देवों ने अपने आभियोगिक (सेवक) देवों को बुलाया और कहा कि हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही विजयदेव के महार्थ (जिसमें बहुत रत्नादिक धन का उपयोग हो), महाघ (महापूजा योग्य), महार्ष (महोत्सव योग्य) और विपुल इन्द्राभिषेक की तैयारी करो। तब वे पाभियोगिक देव सामानिक पर्षदा के देवों द्वारा ऐसा कहे जाने पर हृष्ट-तुष्ट हुए यावत् उनका हृदय विकसित हुआ। हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि लगाकर 'देव ! आपकी आज्ञा प्रमाण है ऐसा कहकर विनयपूर्वक उन्होंने उस प्राज्ञा को स्वीकार किया। वे उत्तरपूर्व दिशाभाग में जाते हैं और वैक्रिय-समुद्घात से समवहत होकर संख्यात योजन का दण्ड निकालते हैं (अर्थात् आत्मप्रदेशों को शरीरप्रमाण बाहल्य में संख्यात योजन तक ऊंचे-नीचे दण्डाकृति में शरीर से बाहर निकालते हैं-फैलाते हैं) रत्नों के यावत् रिष्टरत्नों के तथाविध बादर पुद्गलों को छोड़ते हैं और यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करते हैं / तदनन्तर दुबारा वैक्रिय समुद्घात से समवहत होते हैं और एक हजार आठ सोने के कलश, एक हजार पाठ चांदी के कलश, एक हजार आठ मणियों के कलश, एक हजार पाठ सोने-चांदी के कलश, एक हजार आठ सोने-मणियों के कलश, एक हजार पाठ चांदीमणियों के कलश, एक हजार आठ मिट्टी के कलश, एक हजार पाठ झारियां, इसी प्रकार प्रादर्शक, स्थाल, पात्री, सुप्रतिष्ठक, चित्र, रत्नकरण्डक, पुष्पचंगेरियां यावत् लोमहस्तकचंगेरियां, पुष्पपटलक यावत् लोमहस्तपटलक, एक सौ आठ सिंहासन, छत्र, चामर, ध्वजा, (वर्तक, तपःसिप्र, क्षौरक, पीनक) तेलसमुद्गक और एक सौ आठ धूप के कडुच्छुक (धूपाणिये) अपनी विक्रिया से बनाते हैं। उन स्वाभाविक और वैक्रिय से निर्मित कलशों यावत् धूपकडुच्छुकों को लेकर विजया राजधानी से निकलते हैं और उस उत्कृष्ट यावत् उद्धत (तेज) दिव्य देवगति से तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप समुद्रों के मध्य से गुजरते हुए जहाँ क्षीरोदसमुद्र हैं वहाँ आते हैं और वहां का क्षीरोदक लेकर वहां के उत्पल, कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्रों को ग्रहण करते हैं। वहाँ से पुष्करोदसमुद्र की ओर जाते हैं और वहाँ का पुष्करोदक और वहाँ के उत्पल, कमल यावत् शतपत्र, सहस्रपत्रों को लेते हैं / वहाँ से वे समयक्षेत्र में जहाँ भरत-ऐरवत वर्ष (क्षेत्र) हैं और जहाँ मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ हैं वहाँ प्राकर तीर्थोदक को ग्रहण करते हैं और तीर्थों की मिट्टी लेकर जहाँ गंगा-सिन्धु, रक्ता-रक्तवती महानदियाँ हैं, वहाँ आकर उनका जल ग्रहण करते हैं और नदीतटों की मिट्टी लेकर जहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org