________________ 34] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तत्पणं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमदिइया परिवसंति, तं जहाअसोए, सत्तिवणे, चंपए, चए / तस्थ णं ते साणं साणं वणसंडाणं साणं साणं पासायवडेंसयाणं साणं साणं सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसोणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवच्चं जाव विहरति / [136] (1) उस विजया राजधानी की चारों दिशाओं में पांच-पांच सौ योजन के अपान्तराल को छोड़ने के बाद चार वनखंड कहे गये हैं, यथा--- अशोकवन, 2 सप्तपर्णवन, 3 चम्पकवन और 4 आम्रवन / पूर्व दिशा में अशोकवन है, दक्षिण दिशा में सप्तपर्णवन है / पश्चिमदिशा में चंपकवन है और उत्तरदिशा में आम्रवन है। वे वनखण्ड कुछ अधिक बारह हजार योजन के लम्बे और पांच सौ योजन के चौड़े हैं। वे प्रत्येक एक-एक प्राकार से परिवेष्ठित हैं, काले हैं, काले ही प्रतिभासित होते हैं-इत्यादि वनखण्ड का वर्णनक कह लेना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यंतर देव और देवियाँ स्थित होती हैं, सोती हैं (लेटती हैं क्योंकि देवयोनि में निद्रा नहीं होती), ठहरती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, लीला करती हैं, क्रीडा करती हैं, कामक्रीडा करती हैं और अपने पूर्व जन्म में पुराने अच्छे अनुष्ठानों का, सुपराक्रान्त तप आदि का और किये हुए शुभ कर्मों का कल्याणकारी फल विपाक का अनुभव करती हुई विचरती हैं। उन वनखण्डों के ठीक मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं। वे प्रासादावतंसक साढे बासठ योजन ऊँचे, इकतीस योजन और एक कोस लम्बे-चौड़े हैं। ये प्रासादावतंसक चारों तरफ से निकलती हुई प्रभा से बंधे हुए हों अथवा श्वेतप्रभा पटल से हंसते हुए-से प्रतीत होते हैं, इत्यादि वर्णन जानना चाहिए यावत् उनके अन्दर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है, भीतरी छतों पर पद्मलता आदि के विविध चित्र बने हुए हैं। उन प्रासादावतंसकों के ठीक मध्यभाग में अलग अलग सिंहासन कहे गये हैं। उनका वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् सपरिवार सिंहासन जानने चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर बहुत से आठ-पाठ मंगलक हैं, ध्वजाएं हैं और छत्रों पर छत्र हैं। वहाँ चार देव रहते हैं जो महद्धिक यावत् पल्योपम को स्थिति वाले हैं, उनके नाम हैं१ अशोक, 2 सप्तपर्ण, 3 चंपक और 4 पाम्र। वे अपने-अपने वनखंड का, अपने-अपने प्रासादावतंसक का, अपने-अपने सामानिक देवों का, अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी पर्षदा का और अपने-अपने प्रात्मरक्षक देवों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरते हैं। 136. (2) विजयाए णं रायहाणीए अंतो बहुसमरमाणिज्जे भूमिभागे पण्णते जाव पंचवणेहि मणीहि उवसोभिए तणसद्दविहूणे जाव देवा य देवोओ य आसयंति जाब विहरंति / ___ तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसमाए एस्थ णं एगे महं ओवरियालेणे पण्णत्ते, बारस जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं तिनि जोयणसहस्साइं सत्त य पंचाणउए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिवखे वेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं सध्वजम्बूणवामए णं अच्छे जाव पडिरूवे / ___ से णं एगाए पउमवरवेइयाए, एगेणं वणसंडेणं सवओ समत्ता संपरिविखत्ते / पउमवरवेइयाएवण्णमओ, वणसंडवण्णओ, जाब विहरंति / से गं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाईचक्कवालविक्खंभेणं ओवारियालयणसमे परिक्खेवेणं, तस्स णं ओवारियालयणस्स चद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडिख्वगा पण्णता, वण्णओ। तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरुओ पत्तेयं पत्तेयं तोरणा पण्णत्ता छत्ताइछत्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org