________________ 392] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तासि णं पुक्खरिणीणं पत्तेयं पत्तेयं तिदिसि तिसोवाणपडिरूवगा, वण्णो / तोरणा भाणियथ्या जाब छत्ताइछत्ता / सभाए णं सुहम्माए छ मणोगुलिया साहस्सोमो पण्णताओ, तं जहा-पुरस्थिमेणं दो साहस्सोओ, पच्चत्थिमेणं दो साहस्सीओ, दाहिणेणं एगा साहस्सी, उत्तरेणं एगा साहस्सी / तासु णं मणोगुलिकासु बहवे सुवण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता, तेसु णं सुवण्णरुप्पामएसु फलगेसु वहवे बहरामया णागवंतगा पण्णता, तेसु णं वइरामएसु नागवंतगेसु बहवे किण्हसुत्तवट्टवग्धारियमल्लवामकलावा जाव सुविकलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावा / ते णं दामा तवणिज्जलंबसगा जाव चिट्ठति / समाए सुहम्माए छ गोमाणसीसाहस्सोओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पुरस्थिमेणं :दा साहस्सोमो, एवं पच्चस्थिमेणं वि दाहिणणं सहस्सं एवं उत्तरेणवि / तासु णं गोमाणसीसु बहवे सुवण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता जाव तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पण्णया / तेसुगं रययामयासिक्कएसु बहवे वेरुलियामईओ धूवडियाओ पण्णत्ताओ / ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरुपवरकुदरुक्कतुरुक्क्क जाव घाणमणणिव्वुइकरेणं गंधेणं सव्वओ समंता आपूरेमाणीप्रो चिट्ठति / समाए णं सुधम्माए अंतो बहुसमरमाणिज्जे भूमिभाए पण्णत्ते जाव मणीणं फासे, उल्लोया पउमलयाभत्तिचित्ता जाव सम्वतपणिज्जमए अच्छे जाव पडिलवे / [137] (4) उन चैत्यवृक्षों के आगे तीन दिशाओं में तीन मणिपीठिकाएँ कही गई हैं / वे मणिपीठिकाएँ एक-एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटी हैं / वे सर्वमणिमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपीठिकानों के ऊपर अलग-अलग महेन्द्रध्वज हैं जो साढ़े सात योजन ऊंचे, प्राधा कोम ऊंडे (जमीन के अन्दर), प्राधा कोस विस्तार वाले, बज्रमय, गोल, सुन्दर प्राकारवाले, सुसम्बद्ध, घुष्ट, मृष्ट और सुस्थिर हैं, अनेक श्रेष्ठ पांच वर्गों की लघुपताकानों से परिमण्डित होने से सुन्दर हैं, वायु से उड़ती हुईं विजय की सूचक वैजयन्ती पताकामों से युक्त हैं, छत्रों पर छत्र से युक्त हैं, ऊँची हैं, उनके शिखर प्रकाश को लांघ रहे हैं, वे प्रासादीय यावत् प्रतिरूप हैं। उन महेन्द्रध्वजों के ऊपर पाठ-पाठ मंगल हैं, ध्वजाएँ हैं और छत्रातिछत्र हैं। उन महेन्द्रध्वजों के आगे तीन दिशाओं में तीन नन्दा पुष्करिणियाँ हैं। वे नन्दा पुष्करिणियां साढे बारह योजन लम्बी हैं, छह सवा योजन को चौड़ी हैं, दस योजन ऊंडी हैं, स्वच्छ हैं, शूक्ष्ण (मृदु) हैं इत्यादि पुष्करिणी का वर्णनक कहना चाहिए। वे प्रत्येक पुष्करिणियां पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से घिरी हुई हैं। पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन कर लेना चाहिए यावत् वे पुष्करिणियाँ दर्शनीय यावत् प्रतिरूप हैं। उन पुष्करिणियों की तीन दिशाओं में अलग-अलग त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं। उन त्रिसोपानप्रतिरूपकों का वर्णनक कहना चाहिए / तोरणों का वर्णन यावत् छत्रों पर छत्र हैं। उस सुधर्मा सभा में छह हजार मनोगुलिकाएँ (बैठक) कही गई हैं, यथा-पूर्व में दो हजार, पश्चिम में दो हजार, दक्षिण में एक हजार और उत्तर में एक हजार / उन मनोगुलिकामों में बहुत से सोने चांदी के फलक (पाटिये) हैं। उन सोने-चांदी के फलकों में बहुत से वज्रमय नागदंतक (खूटियां) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org