________________ तृतीय प्रतिपत्ति सिद्धायतन-वर्णन] [395 नाना मणियों के उसके प्रतिपाद (मूलपायों को स्थिर रखने वाले पाये) हैं, उसके मूल पाये सोने के हैं, नाना मणियों के पायों के ऊपरी भाग हैं, जम्बूनद स्वर्ण की उसकी ईसें हैं, वज्रमय सन्धियाँ हैं, नाना मणियों से वह बुना (व्युत) हुआ है, चांदी की गादी है, लोहिताक्ष रत्नों के तकिये' हैं और तपनीय स्वर्ण का गलमसूरिया है / वह देवशयनीय दोनों ओर (सिर और पांव की तरफ) तकियों वाला है, शरीरप्रमाण तकियों वाला (मसनद-बड़े गोल तकिये) हैं, वह दोनों तरफ से उन्नत और मध्य में नत (नोचा) और गहरा है, गंगा नदी के किनारे की बालुका में पैर रखते ही जैसे वह अन्दर उतर जाता है वैसे ही वह शय्या उस पर सोते ही नीचे बैठ जाती है, उस पर बेल-बूटे निकाला हुआ सूती वस्त्र (पलंगपोस) बिछा हया है, उस पर रजस्त्राण लगाया हना है, लाल वस्त्र से वह ढका हा है, सुरम्य रुई, बूर वनस्पति और मक्खन के समान उसका मृदुल स्पर्श है, वह प्रासादीय यावत् प्रतिरूप है। उस देवशयनीय के उत्तर-पूर्व में (ईशानकोण में) एक बड़ी मणिपीठिका कही हुई है / वह एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटी तथा सर्व मणिमय यावत् स्वच्छ है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक छोटा महेन्द्रध्वज कहा गया है जो साढे सात योजन ऊँचा, आधा कोस ऊँडा और प्राधा कोस चौड़ा है। वह वैडूर्यरत्ल का है, गोल है और सुन्दर आकार का है, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् पाठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। उस छोटे महेन्द्रध्वज के पश्चिम में विजयदेव का चौपाल नामक शस्त्रागार है / वहाँ विजय देव के परिधरत्न आदि शस्त्ररत्न रखे हुए हैं / वे शस्त्र उज्ज्वल, अति तेज और तीखी धार वाले हैं / वे प्रासादीय यावत् प्रतिरूप हैं। उस सुधर्मा सभा के ऊपर बहुत सारे पाठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं।' सिद्धायतन-वर्णन 136. (1) सभाए णं सुषम्माए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्य णं एगे महं सिद्धाययणे पण्णत्ते अद्धतेरसजोयणाई मायामेणं छ जोयणाई सकोसाइं विक्खमेणं नवजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं जाव गोमागसिया बत्तग्वया। जा चेव सहाए सुहम्माए वत्तम्वया सा चेव निरवसेसा भाणियव्वा तहेव दारा मुहमंडवा पेच्छाघरमंडवा प्रया। धूमा चेइयरुक्खा महिंदज्या गंवाओ पुक्खरिणीओ। तो य सुधम्माए जहा पमागं मणोगुलियाणं गोमाणसोया, धूवयघडीओ तहेव भूमिभागे उल्लोए य ाव मणिफासे / तस्स सिद्धायतणस्स बहुमजावेसभाए एत्य गं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता दो जोयणाई आयामविक्वंमेणं जोयणं बाहल्लेणं सम्वमणिमयी अच्छा० / तोसे णं मणिपेढियाए उम्पि एत्थ णं एगे महं देवच्छंद एयण्णत्ते, दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं दो जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं सम्वरयणामए अच्छे / तस्थ गं देवच्छंदए अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमेत्ताणं सण्णिक्खित्तं चिड्डइ / सासिगं जिणपडिमाणं अयमेयारवे वण्णावासे पणत्ते, तंजहा-तवणिज्जमया हस्थतला, अंकामयाईणक्खाइं अंतोलोहियक्सपरिसेयाई कणगमया पावा कणगामया गोष्फा कणगामईओ जंघाओ 1. "बिब्वोयणा-उपधानकानि उच्यन्ते' इति मूल टीकाकारः / 2. वृत्ति में 'यावत् बहुत से सहस्रपत्र समुदाय हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं' ऐसा पाठ है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org