________________ 396] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कणगामया जाणू कणगामया अरु कणगामईओ गायलट्ठीओ, तवणिज्जमईओ णाभीओ रिद्वामईओ रोमराईओ, तवणिज्जमया चुरचुया तवणिज्जमया सिरिवच्छा, कणगमयाओ बाहाओ कणगमईओ पासाओ कणगमईओ गोवानो रिट्ठामए मंसु, सिलप्पवालमया उट्ठा, फलिहामया दंता, तवाणिज्जमईओ जीहाओ, तवणिज्जमया तालया कणगमईप्रो गासाओ अंतोलोहियक्खपरिसेयाओ अंकामयाई अच्छीणि, अंतोलोहितक्खपरिसेयाई (पुलगमईओ दिट्ठीओ) रिट्ठामईओ तारगाओ रिट्ठामयाई अच्छिपत्ताई रिद्वामईओ भभुहाओ कणगामया कवोला कणगामया सवणा कणगामया णिडाला वट्टा वडरामईओ सीसघडीग्रो, तवणिज्जमईओ केसंतकेसभूमीओ रिट्ठामया उवरिमुद्धजा। [139] (1) सुधर्मासभा के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) में एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है जो साढे बारह योजन का लम्बा, छह योजन एक कौस चौड़ा और नो योजन ऊंचा है / इस प्रकार पूर्वोक्त सुधर्मासभा का जो वर्णन किया गया है तदनुसार गोमाणसी (शय्या) पर्यन्त सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए। वैसे ही द्वार, मुखमण्डप, प्रेक्षागृहमण्डप, ध्वजा, स्तूप, चैत्यवृक्ष, माहेन्द्रध्वज, नन्दा परिणियाँ. मनोगुलिकाओं का प्रमाण, गोमाणसी, धूपघटिकाएँ, भूमिभाग, उल्लोक (भीतरी प्रादि का वर्णन यावत् मणियों के स्पर्श आदि सुधर्मासभा के समान कहने चाहिए / उस सिद्धायतन के बहुमध्य देशभाग में एक विशाल मणिपीठिका कही गई है जो दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी है, सर्व मणियों की बनी हुई है, स्वच्छ है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवच्छंदक (प्रासनविशेष) कहा गया है, जो दो योजन का लम्बा-चौडा और कछ अधिक दो योजन का ऊँचा है, सर्वात्मना रत्नमय है और स्वच्छ स्फटिक के समान है। उस देवच्छंदक में जिनोत्सेधप्रमाण (उत्कृष्ट पांच सौ धनुष, जघन्य सात हाथ) एक सौ पाठ जिन-प्रतिमाएँ रखी हुई हैं। उन जिन-प्रतिमाओं का वर्णन इस प्रकार कहा गया है-उनके हस्ततल तपनीय स्वर्ण के हैं, उनके नख अंकरत्नों के हैं और उनका मध्यभाग लोहिताक्ष रत्नों की ललाई से युक्त है, उनके पांव स्वर्ण के हैं, उनके गुल्फ (टखने) कनकमय हैं, उनकी जंघाए (पिण्डलियां) कनकमयी हैं, उनके जानु (घुटने) कनकमय हैं, उनके ऊरु (जंधाए) कनकमय हैं, उनकी गात्रयष्टि कनकमयी है, उनकी नाभियां तपनीय स्वर्ण की हैं, उनकी रोमराजि रिष्ट रत्नों की है, उनके चूचुक (स्तनों के अग्रभाग) तपनीय स्वर्ण के हैं, उनके श्रीवत्स (छाती पर अंकित चिह्न) तपनीय स्वर्ण के हैं, उनकी भुजाएँ कनकमयी हैं, उनकी पसलियां कनकमयी हैं, उनकी ग्रीवा कनकमयी है, उनकी मूछे रिष्ट रत्न की हैं, उनके होठ विद्ममय (प्रवालरत्न के) हैं, उनके दांत स्फटिकरत्न के हैं, तपनीय स्वर्ण की जिह्वाएँ हैं, तपनीय स्वर्ण के तालु हैं, कनकमयी उनकी नासिका है, जिसका मध्यभाग लोहिताक्षरत्नों की ललाई से युक्त है, उनकी आँखें अंकरत्न की हैं और उनका मध्यभाग लोहिताक्ष रत्न की ललाई से युक्त है, उनकी दष्टि पुलकित (प्रसन्न) है, उनकी आँखों की तारिका (कोकी) रिष्ट रत्नों की है, उनके अक्षिपत्र (पक्षम) रिष्टरत्नों के हैं, उनकी भौंहैं रिष्टरत्नों की हैं, उनके गाल स्वर्ण के हैं, उनके कान स्वर्ण के हैं, उनके ललाट कनकमय हैं, उनके शीर्ष गोल वज्ररत्न के हैं, केशों की भूमि तपनीय स्वर्ण की है और केश रिष्ट रत्नों के बने हुए हैं / 1. कोष्ठकान्तर्गत पाठ वृत्ति में नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org