________________ तृतीय प्रतिपत्ति : उपपाताविसभा-वर्णन] [399 तीसे गं अलंकारियसहाए उत्तरपुरस्थिमेणं एस्थ णं एगा महं वधसायसभा पण्णता। अभिसेयसमावत्तवया जाव सीहासणं अपरिवारं। तस्य गं विजयस्स देवस्स एग महं पोत्ययरयणे सन्निविखते चिट्ठ। तस्स गं पोत्थयरयणस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-रिद्वामईओ कंबियाओ रययामयाई पत्तकाई रिद्वामयाई अक्खराई' तवणिज्जमए दोरे जाणामणिमए गंठी, वेरुलियमए लिप्पासणे तवणिज्जमई संकला रिट्ठमए छावने रिद्वामई मसी वइरामई लेहणी, धम्मिए सत्थे / ववसायसभाए णं उपि अट्ठमंगलगा नया छत्ताइछत्ता उत्तिमागारेति / __तोसे णं ववसायसभाए' उत्तरपुरस्थिमेणं एगे महं बलिपेढे पण्णत्ते दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सम्वरयणामए अच्छे जाव पउिरूवे / तस्स णं बलिपेढस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एत्य णं एगा मह गंदापुक्खरणी पण्णत्ताजं चेव माणं हरयस्स तं चेव सव्वं / [140 / उस सिद्धायतन के उत्तरपूर्व दिशा (ईशानकोण) में एक बड़ी उपपातसभा कही गई है। सुधर्मा सभा की तरह गोमाणसी पर्यन्त सब वर्णन यहाँ भी कर लेना चाहिए / उपपात सभा में भी द्वार, मुखमण्डप आदि सब वर्णन, भूमिभाग, यावत् मणियों का स्पर्श आदि कह लेना चाहिए। (यहां सुधर्मासभा की वक्तव्यता भूमिभाग और मणियों के स्पर्शपर्यन्त कहनी चाहिए।) उस बहसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक बड़ी मणिपीठिका कही गई है। वह एक योजन लम्बी-चौड़ी और प्राधा योजन मोटी है, सर्वरत्नमय और स्वच्छ है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा देवशयनीय कहा गया है। उस देवशयनीय का वर्णन पूर्ववत् कह लेना चाहिए। उस उपपातसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजा और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम प्राकार के हैं और रत्नों से सुशोभित हैं। उस उपपातसभा के उत्तर-पूर्व में एक बड़ा सरोवर कहा गया है / वह सरोवर साढे बारह योजन लम्बा, छह योजन एक कोस चौड़ा और दस योजन ऊँड़ा है / वह स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है आदि नन्दापुष्करिणीवत् वर्णन करना चाहिए। (वह सरोवर एक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से घिरा हुपा है / यहाँ पनवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन कर लेना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियां स्थित होती हैं यावत् पूर्वकृत पुण्यकर्मों के विपाक का अनुभव करती हुई विचरती हैं। उस हद की तीन दिशाओं में त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं। यहाँ त्रिसोपानप्रतिरूपकों का वर्णन कहना चाहिए यावत् तोरणों का वर्णन कहना चाहिए। ऐसा वृत्ति में उल्लेख है।) उस सरोवर के उत्तर-पूर्व में एक बड़ी अभिषेकसभा कही गई है। सुधर्मासभा की तरह उसका पूरा वर्णन कर लेना चाहिए / गोमाणसी, भूमिभाग, उल्लोक आदि सब सुधर्मासभा की तरह जानना चाहिए। 1. अंकमयाइं पत्ताई इति पाठान्तरम् / 'अंकमयाई पत्ताई रिट्ठामयाई अक्खराइं, अयं पाठः 'वइरामई लेहणी' ___~इत्यस्यानन्तरं वृत्ती व्याख्यातः / 2. 'उववाय सभाए' इति वृत्तौ पाठः / 3. अत्र प्रथमं जीर्णपुस्तके नन्दापुष्करीणीविवेचनं वर्तते पश्चात् वलिपिठस्य परं च टीकायां प्रथमं बलिपीठस्य पश्चात् नंदायाः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org