________________ 400] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक बड़ी मणिपीठिका कही गई है। वह एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है, सर्व मणिमय और स्वच्छ है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा सिंहासन है / यहाँ सिंहासन का वर्णन करना चाहिए, परिवार का कथन नहीं करना चाहिए। उस सिंहासन पर विजयदेव के अभिषेक के योग्य सामग्नी रखी हुई है। अभिषेकसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ, छत्रातिछत्र कहने चाहिए, जो उत्तम आकार के और सोलह रत्नों से उपशोभित हैं। उस अभिषेकसभा के उत्तरपूर्व में एक विशाल अलंकारसभा है। उसकी वक्तव्यता गोमाणसी पर्यन्त अभिषेकसभा की तरह कहनी चाहिए / मणिपीठिका का वर्णन भी अभिषेकसभा की तरह जानना चाहिए। उस मणिपीठिका पर सपरिवार सिंहासन का कथन करना चाहिए / उस सिंहासन पर विजयदेव के अलंकार के योग्य बहुत-सी सामग्री रखी हुई है / उस अलंकारसभा के ऊपर आठआठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार के और रत्नों से सुशोभित हैं। उस पालंकारिक सभा के उत्तरपूर्व में एक बड़ी व्यवसायसभा कही गई है। परिवार रहित सिंहासन पर्यन्त सब वक्तव्यता अभिषेकसभा की तरह कहनी चाहिए / उस सिंहासन पर विजयदेव का पुस्तकरन रखा हया है। उस पुस्तकरत्न का वर्णन इस प्रकार है-रिष्ट रत्न की उसकी कैबिका (पुट्ठ) हैं, चांदी के उसके पन्ने हैं, रिष्ट रत्नों के अक्षर हैं, तपनीय स्वर्ण का डोरा है (जिसमें पन्ने पिरोये हुए हैं), नानामणियों की उस डोरे की गांठ हैं (ताकि पन्ने अलग अलग न हों), वैडूर्य रत्न का मषिपात्र (दावात) है, तपनीय स्वर्ण की उस दावात की सांकल हैं, रिष्टरत्न का ढक्कन है, रिष्टरत्न की स्याही है, वज्ररत्न की लेखनी है। वह ग्रन्थ धार्मिक शास्त्र है। उस व्यवसायसभा के ऊपर पाठ-पाठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम प्रकार के हैं यावत् रत्नों से शोभित हैं। उस' व्यवसायसभा के उत्तर-पूर्व में एक विशाल बलिपीठ है। वह दो योजन लम्बा-चौड़ा और एक योजन मोटा है / वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है / उस बलिपीठ के उत्तरपूर्व में एक बड़ी नन्दापुष्करिणी कही गई है / उसका प्रमाण प्रादि वर्णन पूर्व वणित ह्रद के समान जानना चाहिए। विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक 141. (1) तेणं कालेणं तेणं समएणं विजए देवे विजयाए रायहाणीए उववातसभाए देवसयणिजंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उववण्णे / तए णं से विजए देवे अहुणोववण्णमेत्तए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीमा गच्छइ, तंजहा-आहारपज्जत्तीए, सरीरपज्जत्तीए, इंदियपज्जत्तीए आणापाणुपज्जत्तीए भासामणपज्जत्तीए / तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गयस्स इमेएयारूवे अज्झस्थिए चितिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--कि मे पुव्वं सेयं कि मे पच्छा सेयं, कि मे पुग्वि करणिज्जं कि मे पच्छा 1. वृत्ति में 'उपपातसभा के' ऐसा उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org