________________ तृतीय प्रतिपसि : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [401 करणिज्जं कि मे पुग्वि वा पच्छा वा हियाए सुहाए खेमाए णिस्सेसाए अणुगामियत्ताए भविस्सतोति कट्ट एवं संपेहेइ। ___ तए गं तस्स विजयदेवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा विजयस्स देवस्स इमं एयारवं अज्झस्थियं चितियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पणं जाणित्ता जेणामेव से विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विजयं देवं करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट जएणं विजएणं बद्धाति, जएणं विजएणं बद्धावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं विजयाए रायहाणीए सिद्धायतणसि अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमेसाणं सन्निक्खित्तं चिट्ठइ, सभाए य सुषम्माए माणवए चेइयर्समे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहूओ जिसकहाओ सन्निक्खित्तामओ चिट्ठति, जाओ गं देवाणुप्पियाणं अन्नेसि य बहूणं विजयराजहाणिवत्थव्वाणं देवाणं देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूणिज्जाओ सरकारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ। एतं गं देवाणुप्पियाणं पुस्वि पि सेयं, एतं गं देवाणुप्पियाणं पच्छावि सेयं, एवं गं वेवाणुप्पियाणं पुग्वि करणिज्ज पच्छा करणिज्जं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुग्वि वा पच्छा वा जाव आणुगामियसाए मविस्सइ ति कट्ट महया महया जयजयस पउंजंति / [141] (1) उस काल और उस समय में विजयदेव विजया राजधानी की उपपातसभा में देवशयनीय में देवदूष्य के अन्दर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण शरीर में विजयदेव के रूप में उत्पन्न हुआ। तब वह विजयदेव उत्पत्ति के अनन्तर (उत्पन्न होते ही) पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पूर्ण हुआ / वे पांच पर्याप्तियां इस प्रकार हैं---१ आहारपर्याप्ति, 2 शरीरपर्याप्ति, 3 इन्द्रियपर्याप्ति 4 पानप्राणपर्याप्ति और 5 भाषामनपर्याप्ति / ' ___तदनन्तर पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हुए विजयदेव को इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हग्रा-मेरे लिए पूर्व में क्या श्रेयकर है, पश्चात् क्या श्रेयस्कर है, मुझे पहले क्या करना चाहिए, मुझे पश्चात् क्या करना चाहिए, मेरे लिए पहले और बाद में क्या हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी, निःश्रेयस्कारी और परलोक में साथ जाने वाला होगा। वह इस प्रकार चिन्तन करता है। तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिक पर्षदा के देव विजयदेव के उस प्रकार के अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प को उत्पन्न हुआ जानकर जिस ओर विजयदेव था उस ओर वे आते हैं और प्राकर विजयदेव को हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय से बधाते हैं। बधाकर वे इस प्रकार बोले हे देवानुप्रिय ! आपकी विजया राजधानी के सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण एक सौ पाठ जिन प्रतिमाएं रखी हुई हैं और सुधर्मासभा के माणवक चैत्यस्तम्भ पर वज्रमय गोल मंजूषाओं में बहुत-सी जिन-अस्थियां रखी हुई हैं, जो आप देवानुप्रिय के और बहुत से विजया राजधानी के रहने वाले देवों और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय हैं, जो कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप हैं तथा पर्युपासना करने योग्य हैं / यह प्राप 1. भाषा और मनःपर्याप्ति-एक साथ पूर्ण होने के कारण उनके एकत्व की विवक्षा की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org