________________ 390] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दगरज (जलबिन्दु), क्षीरोदधि के मथित फेनपुंज के समान सफेद हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन चैत्यस्तूपों के ऊपर पाठ-आठ मंगल, बहुत-सी कृष्णचामर से अंकित ध्वजाएँ आदि और छत्रातिछत्र कहे गये हैं। उन चैत्यस्तूपों के चारों दिशाओं में अलग-अलग चार मणिपीठिकाएँ कही गई हैं। वे मणिपीठिकाएँ एक योजन लम्बी-चौड़ी और प्राधा योजन मोटो सर्वमणिमय हैं। उन मणिपीठिकानों के ऊपर अलग-अलग चार जिन-प्रतिमाएँ कही गई हैं जो जिनोत्सेधप्रमाण (उत्कृष्ट पांच सौ धनुष और जघन्य सात हाथ; यहां पांच सौ धनुष समझना चाहिए) हैं, पर्यकासन (पालथी) से बैठी हुई हैं, उनका मुख स्तूप की ओर है। इन प्रतिमाओं के नाम हैं-ऋषभ, वर्द्धमान, चन्द्रानन और वारिषेण / 137. (3) तेसि णं चेइयथभाणं पुरओ तिदिसि पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियानो पण्णत्ताओ। ताओ गं मणिपेढियाओ को दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सम्यमणिमईओ अच्छाओ लण्हाओ सहामो घट्ठाओ मट्ठाओ निप्पंकाओ णीरयाओ जाव पडिरूवाओ। ___ तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं चेइयरुक्खा पण्णत्ता / ते णं चेइयरुक्खा अट्ठजोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं अद्धजोयणं उव्येहेणं वो जोयणाई खंधी अद्धजोयणं विक्खंभेणं छज्जोयणाई विडिमा बहुमज्झदेसभाए अटुजोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं अट्ठजोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ता। तेसि णं चेइयरुक्खाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-बहरामया मूला रययसुपइडिया विडिमा रिट्टामयविपुलकंदवेरुलियरुइलखंधा सुजातरूवपढ़मगविसालसाला नानामणिरयणविविहसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिज्जपत्तवेंटा जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवसोभंतवरंकुरग्गसिहरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरणमियसाला सच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया अमयरससमरसफला अहियं णयणमणणिव्वुइकरा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। ते णं चेइयरुक्खा अन्नेहिं बहूहि तिलय-लवय-छत्तोवग-सिरीस-सत्तवण्ण-दहिवण्ण-लोड-धवचंदन-नोव-कुडय-कर्यब-पणस-ताल-तमाल-पियाल-पियंगु-पारावय-रायरुक्ख-नंविरुक्खेहि सम्वओ समंता संपरिक्खित्ता। ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा मूलवंता कंदवंता जाव सुरम्मा / ते णं तिलया जाय नंदिरुक्खा अन्नेहि बहिं पउमलयाहिं जाव सामलयाहिं सवओ समंता संपरिक्खित्ता। ताओ णं पउमलयाओ नाव सामलयाओ णिच्चं कुसुमियाओ जाव पडिरूबाओ। तेसिं गं चेइयरुक्खाणं उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा नया छत्ताइ छत्ता। [137] (3) उन चैत्यस्तूपों के आगे तीन दिशाओं में अलग-अलग मणिपीठिकाएँ कही गई हैं। वे मणिपीठिकाएँ दो-दो योजन की लम्बी-चौड़ी और एक योजन मोटी हैं, सर्वमणिमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु पुद्गलों से निर्मित हैं, चिकनी हैं, घृष्ट हैं, मृष्ट हैं, पंकरहित, रजरहित यावत् प्रतिरूप हैं। 1. वरंकुधरा इति पाठान्तरम् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org