________________ 388] [जीवामीवाभिगमसूत्र [137] (1) उस मूल प्रासादावतंसक के उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में विजयदेव की सुधर्मा नामक सभा है जो साढ़े बारह योजन लम्बी, छह योजन और एक कोस की चौड़ी तथा नौ योजन की ऊँची है / वह सैकड़ों खंभों पर स्थित है, दर्शकों की नजरों में चढ़ी हुई (मनोहर) और भलीभांति बनाई हुई उसकी वज्रवेदिका है, श्रेष्ठ तोरण पर रति पैदा करने वाली शालभंजिकायें (पुत्तलिकायें) लगी हुई हैं, सुसंबद्ध, प्रधान और मनोज्ञ आकृति वाले प्रशस्त वैडूर्यरत्न के निर्मल उसके स्तम्भ हैं, उसका भूमिभाग नाना प्रकार के मणि, कनक और रत्नों से खचित है, निर्मल है, समतल है, सुविभक्त, निबिड और रमणीय है / ईहामृग, बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु (मृग), सरभ (अष्टापद), चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता, प्रादि के चित्र उस सभा में बने हए हैं. अतएव वह बहत आकर्षक है। उसके स्तम्भों पर वन की वेदिका बनी हुई होने से वह बहुत सुन्दर लगती है। समश्रेणी के विद्याधरों के युगलों के यंत्रों (शक्तिविशेष) के प्रभाव से यह सभा हजारों किरणों से प्रभासित हो रही है। यह हजारों रूपकों से युक्त है, दीप्यमान है, विशेष दीप्यमान है, देखने वालों के नेत्र उसी पर टिक जाते हैं, उसका स्पर्श बहुत ही शुभ और सुखद है, वह बहुत ही शोभायुक्त है / उसके स्तूप का अग्रभाग (शिखर) सोने से, मणियों से और रत्नों से बना हुआ है, उसके शिखर का अग्रभाग नाना प्रकार के पांच वर्षों की घंटाओं और पताकाओं से परिमंडित है, वह सभा श्वेतवर्ण की है, वह किरणों के समूह को छोड़ती हुई प्रतीत होती है, वह लिपी हुई और पुती हुई है, गोशीर्ष चन्दन और सरस लाल चन्दन से बड़े बड़े हाथ के छापे लगाये हए हैं, उसमें चन्दनकलश अथवा वन्दन (मंगल) कलश स्थापित किये हुए हैं, उसके द्वारभाग पर चन्दन के कलशों से तोरण सुशोभित किये गये हैं, ऊपर से लेकर नीचे तक विस्तृत, गोलाकार और लटकती हुई पुष्पमालाओं से वह युक्त है, पांच वर्ण के सरस-सुगंधित फूलों के पुंज से वह सुशोभित है, काला अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुक (गन्धद्रव्य) और तुरुष्क (लोभान) के धूप की गंध से वह महक रही है, श्रेष्ठ सुगंधित द्रव्यों की गंध से वह सुगन्धित है, सुगन्ध की गुटिका के समान सुगन्ध फैला रही है / वह सुधर्मा सभा अप्सराओं के समुदायों से व्याप्त है, दिव्यवाद्यों के शब्दों से वह निनादित हो रही है-गूंज रही है / वह सुरम्य है, सर्वरत्नमयी है, स्वच्छ है, यावत् प्रतिरूप है। 137. (2) तीसे णं सुहम्माए समाए तिदिसि तओ दारा पण्णता / ते णं दारा पत्तेयं पत्तेयं दो दो जोयणाई उड्थ उच्चत्तेणं एगं जोयणं विवखंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगभियागा जाव वणमाला-दार-वण्णओ। तेसि णं दाराणं पुरओ मुहमंडवा पण्णत्ता। ते गं मुहमंडवा प्रद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छ जोयणाई सक्कोसाई विक्खंभेणं साइरेगाइं दो जोयणाई उड्ड उच्चत्तण अणेगखंभसयसन्निविट्ठा भाव उल्लोया भूमिभागवण्णओ / तेसि गं मुहमंडवाणं उपरि पत्तेयं पत्तेयं अट्ट मंगलगा पण्णत्ता सोस्थिय जाव दप्पणा'। तेसि णं मुहमंडवाणं पुरो पत्तेयं पत्तेयं पेच्छाधरमंडवा पण्णता; ते णं पेच्छाधरमंडवा अखतेरसजोयणाई आयामेणं जाव दो जोयणाई उड्व उच्चत्तेणं जाव मणिफासो। तेसि णं बहुमज्मदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामयअक्खाडगा पण्णता। तेसि गं वइरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेसं मणिपोढिया पण्णत्ता / ताओ गं मणिपीढियाओ जोयणमेगं 1. मच्छ .1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org