________________ तृतीय प्रतिपत्ति : सुधर्मा सभा का वर्णन] [387 वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊँचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से वेष्ठित हैं। वे प्रासादावतंसक साढे पन्द्रह योजन और आधे कोस के ऊँचे और कुछ कम पाठ योजन की लम्बाईचौड़ाई वाले हैं, किरणों से युक्त आदि पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग हैं और चित्रित छतों के भीतरी भाग हैं / उन बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में अलग-अलग पद्मासन कहे गये हैं। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। ___ वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊँचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से घिरे हुए हैं। वे प्रासादावतंसक कुछ कम पाठ योजन की ऊँचाई वाले और कुछ कम चार योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाले हैं, किरणों से व्याप्त हैं / भूमिभाग, उल्लोक और भद्रासन का वर्णन जानना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों पर पाठ पाठ मंगल, ध्वजा और छत्रातिछत्र हैं। _वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊँचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से चारों ओर से घिरे हुए हैं। वे प्रासादावतंसक कुछ कम चार योजन के ऊंचे और कुछ कम दो योजन के लम्बे-चौड़े हैं, किरणों से युक्त हैं आदि वर्णन कर लेना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के अन्दर भूमिभाग, उल्लोक, और पद्मासनादि कहने चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर पाठ-पाठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं।' सुधर्मा सभा का वर्णन 137. (1) तस्स णं मूलपासायव.सगस्त उत्तरपुरस्थिमेणं, एस्थ णं विजयस्स देवस्स सभा सुषम्मा पग्णत्ता, अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छ सक्कोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं णव जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसग्निविट्ठा, अब्भुग्गयसुकयवइरवेवियातोरणवररइयसालभंजिया, सुसिलिटुविसिट्ठलट्ठसंठियपसस्थवेरुलियविमलखंभा जाणामणिकणगरयणखइय-उज्जल-बहुसमसुविभत्तचित्त (णिचिय)रमणिज्मकुट्टिमतला ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता, थंभुग्गयवइरवेदियापरिगयाभिरामा विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविव अच्चिसहस्समालणोया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणी भिन्भिसमाणी चक्खुलोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा कंचणमणिरयणथूभियागा गाणाविहपंचवण्णघंटापडागपडिमंडितम्गसिहरा धवला मिरोइकवचं विणिम्मुयंती लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणवदरदिन्नपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारवेसमागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदामफलावा पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमधमतगंधद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधट्टिभूया अच्छरगणसंघविकिन्ना दिन्वतुडियमधुरसहसंपणादिया सुरम्मा सम्वरयणामई अच्छा जाव पडिरूवा। 1. वृत्तिकार ने कहा है कि 'इस प्रकार प्रासादावतंसकों की चार परिपाटियां होती हैं। कहीं तीन ही परिपाटियां कही गई हैं। चौथी परिपाटी नहीं कही है।'--(तदेवं चतस्रः प्रासादावतंसकपरिपाट्यो भवन्ति, क्वचित्तिस्रः एव दृश्यन्ते, न चतुर्थी / ) 2. 'रमणिज्जभूभिभागा' इति वृत्ती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org