________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या) [383 माणाभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यम्, ता एव गाथा पाह-'तोरणे, इत्यादि गाथात्रयम्' अर्थात् शेष तोरणादिक का कथन विजयद्वार की तरह इन तीन गाथानों से जानना चाहिए। वे गाथाएं इस प्रकार हैं 'तोरण' प्रादि / ' वृत्तिकार ने तीन गाथाओं की वृत्ति की है इससे सिद्ध होता है कि उनके सन्मुख जो प्रति थी उसमें उक्त तीन गाथाएँ मूल पाठ में होनी चाहिए / वर्तमान में उपलब्ध प्रतियों में ये तीन गाथाएँ नहीं मिलती हैं / वृत्ति के अनुसार उन गाथाओं का भावार्थ इस प्रकार है __उस विजया राजधानी के द्वारों में प्रत्येक नैषेधिकी में दो-दो तोरण कह गये हैं, उन तोरणों के ऊपर प्रत्येक पर आठ-पाठ मंगल हैं, उन तोरणों पर कृष्ण चामर प्रादि से अंकित ध्वजाएँ हैं। उसके बाद तोरणों के आगे शालभंजिकाएँ हैं, तदनन्तर नागदंतक हैं। नागदन्तकों में मालाएँ हैं। तदनन्तर हयसंघाटादि संघाटक हैं, तदनन्तर हयपंक्तियाँ, तदनन्तर हयवीथियाँ आदि, तदनन्तर हयमिथुनकादि, तदनन्तर पद्मलतादि लताएँ, तदनन्तर चतुर्दिक स्वस्तिक, तदनन्तर चन्दनकलश, तदनन्तर भृगारक, तदनन्तर प्रादर्शक, फिर स्थाल, फिर पात्रियाँ, फिर सुप्रतिष्ठक, तदनन्तर मनोगुलिका, उनमें जलशून्य वातकरक (घड़े), तदनन्तर रत्नकरण्डक, फिर हयकण्ठ, गजकण्ठ, नरकण्ठ, किन्नरकिंपुरुष-महोरग-गन्धर्व-वृषभ-कण्ठ क्रम से कहने चाहिये / तदनन्तर पुष्पचंगेरियां कहनी चाहिए / फिर पुष्पादि पटल, सिंहासन, छत्र, चामर, तैलसमुद्गक आदि कहने चाहिए और फिर ध्वजाएँ कहनी चाहिए / बजात्रों का चरम सूत्र है-उस विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजाएँ मैंने और अन्य तीर्थंकरों ने कही हैं। ध्वजासूत्र के बाद भौम कहने चाहिए। भौमों के भूमिभाग और उल्लोकों (भीतरी छतों) का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। उन भौमों के ठीक मध्यभाग में नवमे-नवमे भौम के मध्यभाग में विजयदेव के योग्य सिंहासन हैं जैसे कि विजयद्वार के पांचवें भौम में हैं किन्तु सपरिवार सिंहासन कहने चाहिए / शेष भौमों में सपरिवार भद्रासन कहने चाहिए / उन द्वारों का उपरी आकार सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित हैं। सोलह रत्नों के नाम पूर्व में कहे जा चुके हैं / यावत् उन पर छत्र पर छत्र लगे हुए हैं / इस प्रकार सब मिलाकर (विजय) राजधानी के पांच सौ द्वार कहे गये हैं। 136. [1] विजयाए णं रायहाणीए चउद्दिसि पंचपंचजोयणसयाई अबाहाए, एत्थ णं चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा–प्रसोगवणे सत्तिवण्णवणे चंपकवणे चूयवणे / पुरथिमेणं असोगवणे, दाहिणणं सत्तिवण्णवणे, पच्चत्थिमेणं चंपगवणे उत्तरेणं चयवणे / ते णं बणसंडा साइरेगाई दुवालसजोयणसहस्साई आयामेणं पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णता पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिक्खित्ता किन्हा किण्होभासा वणसंडवण्णओ भाणियब्धो जाव वहदे वाणमंतरा देवा य देवोओ य आसयंति सयंति चिट्ठति णिसोदंति तुयति रमंति ललंति कीलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कम्माणं कडाणं कल्लाणाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणभवमाणा विहरति / तेसिं णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायडिसगा पण्णत्ता, ते ण पासायवडिसगा वाटुिं जोयणाई अद्धजोयणं च उड्ढे उच्चत्तेणं, एक्कतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं अग्भग्गयमुस्सिम० तहेव जाव अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता उल्लोया पउमलयाभत्तिचित्ता भाणियम्वा / तेसि णं पासायडिसगाणं बहुमज्मदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णता वण्णावासो सपरिवारा। तेसि गं पासायडिसगाणं उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org