________________ 382] [मीवाजीवाभिगमसूत्र पत्तेयं पत्तेयं सोहासणा पण्णत्ता। सीहासणवण्णओ जाव दामा जहा हेढा / एत्थ गं अबसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं मद्दासणा पण्णता / तेसिं गं दाराणं उवरिमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिया / तं व जाव छत्ताइछत्ता / एवामेव पुज्वावरेण विजयाए रायहाणीए पंच दारसया भवतीति मक्खाया। [135] (2) विजया राजधानी की एक-एक बाहा (दिशा) में एक सौ पच्चीस, एक सौ पच्चीस द्वार कहे गये हैं। ऐसा मैंने और अन्य तीर्थंकरों ने कहा है / ये द्वार साढे बासठ योजन के ऊंचे हैं, इनकी चौडाई इकतीस योजन और एक कोस है और इतना ही इनका प्रवेश है। ये द्वार श्वेत वर्ण के हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तूपिका (शिखर) है, उन पर ईहामृग आदि के चित्र बने हैं-इत्यादि वर्णन विजयद्वार की तरह कहना चाहिए यावत् उनके प्रस्तर (आंगन) में स्वर्णमय बालुका बिछी हुई है। उनका स्पर्श शुभ और सुखद है, वे शोभायुक्त सुन्दर प्रासादीय दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन द्वारों के दोनों तरफ दोनों नषेधिकाओं में दो-दो चन्दन-कलश की परिपाटी कही गई हैं-- इत्यादि वनमालाओं तक का वर्णन विजयद्वार के समान कहना चाहिए / उन द्वारों के दोनों तरफ कामों में दो-दो प्रकण्ठक (पीठविशेष) कहे गये हैं। वे प्रकंटक इकतीस योजन और एक कोस लम्बाई-चौडाई वाले हैं, उनकी मोटाई पन्द्रह योजन और ढाई कोस है, वे सर्व वनमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उन प्रकण्ठकों के ऊपर प्रत्येक पर अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं / वे प्रासादावतंसक इकतीस योजन एक कोस ऊंचे हैं, पन्द्रह योजन ढाई कोस लम्बे-चौड़े हैं / शेष वर्णन समुद्गक पर्यन्त विजयद्वार के समान ही कहना चाहिए, विशेषता यह है कि वे सब बहुवचन रूप कहने चाहिए। उस विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर 108 चक्र से चिह्नित ध्वजाएं यावत् 108 श्वेत और चार दांत वाले हाथी से अंकित ध्वजाएँ कही गई हैं / ये सब आगे-पीछे की ध्वजाएं मिलाकर विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजाएँ कही गई हैं। विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर (उन द्वारों के प्रागे) सत्रह भौम (विशिष्टस्थान) कहे गये हैं / उन भौमों के भूमिभाग और अन्दर की छतें पद्मलता प्रादि विविध चित्रों से चित्रित हैं। उन भौमों के बहुमध्य भाग में जो नौवें भौम हैं, उनके ठीक मध्यभाग में अलग-अलग सिंहासन कहे गये हैं। यहाँ सिंहासन का पूर्ववणित वर्णनक कहना चाहिए यावत् सिंहा लटक रही हैं। शेष भौमों में अलग-अलग भद्रासन कहे गये हैं। उन द्वारों के ऊपरी भाग सोलह प्रकार के रत्नों से शोभित हैं आदि वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए यावत् उन पर छत्र पर छत्र लगे हुए हैं / इस प्रकार सब मिलाकर विजया राजधानी के पांच सौ द्वार होते हैं। ऐसा मैंने और अन्य तीर्थंकरों ने कहा है। विवेचन-प्रस्तुतसूत्र में विजया राजधानी का वर्णन करते हुए अनेक स्थानों पर विजयद्वार का प्रतिदेश किया गया है / 'जहा विजयदारे' कहकर यह अतिदेश किया गया है / इस अतिदेश के पाठों में विभिन्न प्रतियों में विविध पाठ हैं। श्री मलयगिरि की वृत्ति के पढ़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि उन प्राचार्यश्री के सम्मुख कोई दूसरी प्रति थी जो अब उपलब्ध नहीं है। क्योंकि इस सूत्र की वत्ति में प्राचार्यश्री ने उल्लेख किया है--'शेषमपि तोरणादिकं विजयद्वारवदिमाभिर्वक्ष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org