________________ 380 [जीवाजीवाभिगमसूत्र 134. से केण→णं भंते ! एवं बुच्चइ विजए णं दारे विजए णं दारे ? गोयमा ! विजए णं दारे विजए णाम देवे महिड्ढिोए महज्जुईए जाव महाणभावे पलिग्रोवमलिईए परिवसति / से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं, चउण्हं अगमहिसोणं सपरिवाराणं, तिहं परिसाणं, सत्तण्हं आणियाणं, सत्तण्हं आणियाहिबईणं, सोलसण्हं आयरक्खवेवसाहस्सीणं, विजयस्स णं दारस्स विजयाए रायहाणीए, अण्णेसि च बहूर्ण विजयाए रायहाणीए वत्थव्यगाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं नाव दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ / से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइविमएदारे विजएवारे। अदुत्तरं च णं गोयमा ! विजयस्स णं दारस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते जं ण कयाइणासी, ण कयाए पत्थि, ण कयाविण भविस्सइ जाव अवढिए णिच्चे विजयदारे / [134] हे भगवन् ! विजयद्वार को विजयद्वार क्यों कहा जाता है ? गीतम् ! विजयद्वार में विजय नाम का मद्धिक, महाद्युति वाला यावत् महान् प्रभाव वाला और एक पल्योपम की स्थिति वाला देव रहता है / वह चार हजार सामानिक देवों, चार सपरिवार अग्रमहिषियों, तीन पर्षदाओं, सात अनीकों (सेनामों), सात अनीकाधिपतियों और सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, विजयद्वार का, विजय राजधानी का और अन्य बहुत सारे विजय राजधानी के निवासी देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् दिव्य' भोगोपभोगों को भोगता हुमा विचरता है / इस कारण हे गौतम ! विजयद्वार को विजयद्वार कहा जाता है। हे गौतम ! विजयद्वार का यह नाम शाश्वत है। यह पहले नहीं था ऐसा नहीं, वर्तमान में नहीं-ऐसा नहीं और भविष्य में कभी नहीं होगा--ऐसा भी नहीं, यावत् यह अवस्थित और नित्य है। 135. (1) कहिं गं भंते ! विजयस्स देवस्स विजयाणाम रायहाणी पण्णता ? गोयमा! विजयस्स णं दारस्स पुरथिमेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीइवइत्ता अण्णम्मि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं विजयस्स देवस्स विजयाणाम रायहाणी पण्णत्ता, वारस जोयणसहस्साई आयाम-विक्खंमेणं सत्ततीसं जोयणसहस्साई नव य अडयाले जोयणसए किंचि विसेसाहिया परिक्खेवेणं पण्णत्ता / ___सा णं एगेणं पागारेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता। से गं पागारे सत्ततीसं जोयणाई अद्धजोयणं य उड्ढं उच्चत्तेणं, मूले अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे सक्कोसाई जोयणाई विक्खंमेणं उपि तिण्णि सद्धकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं, मूले वित्थिपणे मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए वाहि वट्टे अंतो चउरसे गोपुच्छसंठाणसंठिए सवकणगामए अच्छे जाव पडिलवे। से णं पागारे गाणाविहपंचवणेहि कविसीसएहि उवसोभिए, तंजहा—किण्हेहिं जाव सुषिकलेहि / ते णं कविसोसगा अद्धकोसं आयामेणं पंचधणुसयाई विखंभेणं देसूणमद्धकोसं उड्ढे उच्चत्तेणं सध्वमणिमया अच्छा जाव पडिरूवा। 1. भोगभोगाई अति भोग योग्य शब्दादि भोगों को। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org