________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [379 उस विजयद्वार के आगे नौ भौम (विशिष्टस्थान) कहे गये हैं। उन भौमों के अन्दर एकदम समतल और रमणीय भूमिभाग कहे गये हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् यावत् मणियों के स्पर्श तक जानना चाहिए / उन भौमों की भीतरी छत पर पद्मलता यावत् श्यामलताओं के विविध चित्र बने हुए हैं, यावत् वे स्वर्ण के हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन भौमों के एकदम मध्यभाग में जो पांचवां भौम है उस भौम के ठीक मध्यभाग में एक बड़ा सिंहासन कहा गया है, उस सिंहासन का वर्णन, देवदूष्प का वर्णन यावत वहाँ अंकुशों में मालाएँ लटक रही हैं, यह सब पूर्ववत् कहना चाहिए। उस सिंहासन के पश्चिम-उत्तर (वायव्यकोण) में, उत्तर में, उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में विजयदेव के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार भद्रासन कहे गये हैं। उस सिंहासन के पूर्व में विजयदेव की चार सपरिवार अग्रमहिषियों के चार भद्रासन कहे गये हैं / उस सिंहासन के दक्षिण-पूर्व में (आग्नेयकोण में) विजयदेव की प्राभ्यन्तर पर्षदा के पाठ हजार देवों के आठ हजार भद्रासन कहे गये हैं। उस सिंहासन के दक्षिण में विजयदेव की मध्यम पर्षदा के दस हजार देवों के दस हजार भद्रासन कहे गये हैं / उस सिंहासन के दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यकोण) में विजयदेव की बाह्य-पर्षदा के बारह हजार देवों के बारह हजार भद्रासन कहे गये हैं। उस सिंहासन के पश्चिम में विजयदेव के सात अनीकाधिपतियों के सात भद्रासन कहे गये हैं। उस सिंहासन के पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में विजयदेव के सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों के सोलह हजार सिंहासन हैं। पूर्व में चार हजार, इसी तरह चारों दिशाओं में चार-चार हजार यावत् उत्तर में चार हजार सिंहासन कहे गये हैं। शेष भौमों में प्रत्येक में भद्रासन कहे गये हैं। (ये भद्रासन--सामानिकादि देव परिवारों से रहित जानने चाहिए।) 133. विजयस्स गं दारस्स उरिमागारा सोलसविहेहि रयणेहि उपसोभिता, तंजहारयहि वेरुलिएहि जाव रिट्ठहिं / विजयस्स णं दारस्स उपि बहवे अहमंगलगा पण्णत्ता, तंजहासोत्थिय-सिरिवच्छ जाव वप्पणा सत्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। विजयस्स णं बारस्स उप्पि बहवे कण्हचामरज्या जाव सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा / विजयस्स णं वारस्स उपि बहवे छत्ताइछत्ता तहेव। [133] उस विजयद्वार का ऊपरी आकार (उत्तरांगादि) सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित है। जैसे वनरत्न, वैडूर्यरत्न यावत् रिष्टरत्न / ' उस विजयद्वार पर बहुत से आठ-आठ मंगल--स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण कहे गये हैं। ये सर्वरत्नमय स्वस्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उस विजयद्वार के ऊपर बहुत से कृष्ण चामर के चिह्न से अंकित ध्वजाएँ हैं। यावत् वे ध्वजाएँ सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं / उस विजयद्वार के ऊपर बहुत से छत्रातिछत्र कहे गये हैं / इन सबका वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। 1. सोलह रत्नों के नाम-१. रत्न-सामान्य कर्केतनादि, 2. वज्र, 3. वैडूर्य, 4. लोहिताक्ष, 5. मसारगल्ल, 6. हंसगर्भ, 7. पुलक, 8. सौगंधिक, 9. ज्योतिरस, 10. अंक, 11. अंजन, 12. रजत, 13. जातरूप, 14. अंजनपुलक, 15. स्फटिक, 16. रिष्ट / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org