________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [373 उन प्रासादावतंसकों के ऊपरी भाग पद्मलता, अशोकलता यावत् श्यामलता के चित्रों से चित्रित हैं और वे सस्मिना स्वर्ण के हैं। वे स्वच्छ, चिकने यावत् प्रतिरूप हैं। उन प्रासादावतंसकों में अलग-अलग बहुत सम और रमणीय भूमिभाग है। वह भूमिभाग मृदंग पर चढ़े हुए चर्म के समान समतल है यावत् मणियों से उपशोभित है / यहाँ मणियों के गन्ध, वर्ण और स्पर्श का वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए / उन एकदम समतल और रमणीय भूमिभागों के एकदम मध्यभाग में अलग-अलग मणिपीठिकाएँ कही गई हैं / वे मणिपीठिकाएँ एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटाई' वाली हैं। वे सर्वरत्नमयी यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपोठिकानों के ऊपर अलग-अलग सिंहासन कहे गये हैं। उन सिंहासनों का वर्णन इस प्रकार कहा गया है--उन सिंहासनों के सिंह रजतमय हैं, स्वर्ण के उनके पाये हैं, तपनीय स्वर्ण के पायों के अधःप्रदेश हैं, नाना मणियों के पायों के ऊपरी भाग हैं, जंबूनद स्वर्ण के उनके गात्र (ईसें) हैं, वचमय उनकी संधियां हैं, नाना मणियों से उनका मध्यभाग बुना गया है / वे सिंहासन ईहामृग, वृषभ, यावत् पद्मलता आदि की रचनाओं से चित्रित हैं, प्रधान-प्रधान विविध मणिरत्नों से उनके पादपीठ उपचित (शोभित) हैं, उन सिंहासनों पर मृदु स्पर्शवाले आस्तरक (माच्छादन, अस्तर) युक्त गद्दे जिनमें नवीन छालवाले मुलायम-मुलायम दर्भाग्र (दूब) और अतिकोमल केसर भरे हैं, बिछे होने से वे सुन्दर लग रहे हैं, उन गद्दों पर बेलबूटों से युक्त सूती वस्त्र की चादर (पलंगपोस) बिछी हुई है, उनके ऊपर धल न लगे इसलिए रजस्त्राण लगाया या है. वे रमणीय ला आच्छादित हैं, सुरम्य हैं, जिनक (मृगचर्म), रुई, बूर वनस्पति, मक्खन और अर्कतूल के समान मुलायम स्पर्शवाले हैं। वे सिंहासन प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन सिंहासनों के ऊपर अलग-अलग विजयष्य (वस्त्रविशेष) कहे गये हैं। वे विजयदूष्य सफेद हैं, शंख, कुंद (मोगरे का फूल), जलबिन्दु, क्षीरोदधि के जल को मथित करने से उठने वाले फेनपुज के समान (श्वेत) हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत प्रतिरूप हैं। उन विजयदूष्यों के ठीक मध्यभाग में अलग अलग वज्रमय अंकुश (हुक तुल्य) कहे गये हैं / उन वज्रमय अंकुशों में अलग अलग कुंभिका (मगधदेशप्रसिद्धप्रमाण विशेष) प्रमाण मोतियों की मालाएँ लटक रही हैं। वे कुंभिकाप्रमाण मुक्तामालाएँ अन्य उनसे प्राधो ऊँचाई वाली अर्धकुंभिका प्रमाण चार चार मोतियों की मालाओं से सब ओर से वेष्ठित हैं। उन मुक्तामालाओं में तपनीयस्वर्ण के लंबुसक (पेण्डल) हैं, वे अासपास से स्वर्ण के प्रतरक से मंडित हैं यावत् श्री से अतीव अतीव सुशोभित हैं। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर पाठ-पाठ मंगल कहे गये हैं, यथा-स्वस्तिक यावत् छत्र / 131. (1) विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो दो तोरणा पण्णता, ते गं तोरणा णाणामणिमया तहेव जाव अट्ठमंगलका य छत्तातिछत्ता / तेसिं गं तोरणामं पुरषो दो दो 1. टीका में 'अट्ठजोयणंबाहल्लेणं' 'अष्ट योजनानि बाहल्येन' पाठ है / 2. 'वेच्चं' व्यूतं वानमित्यर्थः / आह च चूणिकृत् 'वेच्चे वाणक्कतेणं' / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org