________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [375 उन तोरणों के आगे दो-दो चन्दनकलश कहे गये हैं। वे चन्दनकलश श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित हैं आदि पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे सर्व रत्नमय हैं यावत् प्रतिरूप हैं। / उन तोरणों के आगे दो-दो भगारक (झारी) कहे गये हैं। वे भंगारक श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित हैं यावत् सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं और हे प्रायुष्मन् श्रमण ! वे भृगारक बड़ेबड़े और मत्त हाथी के मुख की प्राकृति वाले हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो प्रादर्शक (दर्पण) कहे गये हैं। उन आदर्शकों का वर्णनक इस प्रकार है-इन दर्पणों के प्रकण्ठक (पीठविशेष) तपनीय स्वर्ण के बने हुए हैं, इनके स्तम्भ (जहाँ से दर्पण मुट्ठी में पकड़ा जाता है वह स्थान) वैडूर्य रत्न के हैं, इनके वरांग (गण्ड-फेम) वज्ररत्नमय हैं, इनके वलक्ष (सांकलरूप अवलम्बन) नाना मणियों के हैं, इनके मण्डल (जहां प्रतिबिम्ब पड़ता है) अंक रत्न के हैं / ये दर्पण अनवर्षित (मांजे बिना ही--स्वाभाविक) और निर्मल छाया- कान्ति से युक्त हैं, चन्द्रमण्डल की तरह गोलाकार हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! ये दर्पण बड़े-बड़े और दर्शक की आधी काया के प्रमाण वाले कहे गये हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो वज्रनाभ' स्थाल कहे गये हैं। वे स्थाल स्वच्छ, तीन बार सूप आदि से फटकार कर साफ किये हुए और मूसलादि द्वारा खंडे हुए शुद्ध स्फटिक जैसे चावलों से भरे हुए हों, ऐसे प्रतीत होते हैं / वे सर्व स्वर्णमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं / हे आयुष्मन् श्रमण ! वे स्थाल बड़े-बड़े रथ के चक्र के समान कहे गये हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो पात्रियां कही गई हैं। ये पात्रियां स्वच्छ जल से परिपूर्ण हैं। नानाविध पांच रंग के हरे फलों से भरी हुई हों-ऐसी प्रतीत होती हैं (साक्षात् जल या फल नहीं हैं, किन्तु वैसी प्रतीत होती हैं। वे पृथ्वीपरिणामरूप और शाश्वत हैं / केवल बैसी उपमा दी गई है।) वे स्थाल सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं और बड़े-बड़े गोकलिंजर (बांस का टोपला अथवा) चक्र के समान कहे गये हैं। 131. (2) तेसि गं तोरणाणं पुरनो दो दो सुपतिट्ठगा पण्णत्ता। ते णं सुपतिट्ठगा गाणाविह(पंचवण्ण) पसाहणगभंडविरचिया सम्वोसहिपडिपुण्णा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा / तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो मणोगुलियाओ पण्णत्ताओ, तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवण्ण-रुप्पामया फलगा पण्णत्ता / तेसु णं सुवण्णरुप्पामएसु फलएसु बहवे बइरामया णागदंतगा मुत्ताजालंतररुसिता हेम जाव गयदंत समाणा पण्णत्ता / तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पण्णता। तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वायकरगा पण्णत्ता / ते गं वायकरगा किण्हसुत्तसिक्कगवत्थिया जाय सुक्किलसुत्तसिक्कगवत्थिया सव्वे वेरुलियामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसि गं तोरणाणं पुरओ दो-दो चित्ता रयणकरंडगा पग्णत्ता। से जहाणामए रणो चाउरंत. चक्कट्टिस्स चित्ते रयणकरंडे वेरुलियमणिफालिय पडलपच्चोयडे साए पमाए ते पएसे सव्वनो समंता 1. वृत्ति में 'वज्रनाभ स्थाल' कहा है / अन्यत्र 'वइरामए थाले' ऐसा पाठ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org