________________ 372] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पण्णताओ / ताओ गं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्वंमेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सम्धरयणामईओ माव पहिलवाओ। तासि णं मणिपेठियाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं सोहासणे पण्णत्ते / तेसि णं सोहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-रययामया सीहा तवणिज्जमया चक्कवाला सोवणिया पावा जाणामणिमयाई पायसीसगाई जंबूणवमयाई गत्ताई वइरामया संधी नानामणिमए वेच्चे। ते गं सोहासणा ईहामिय-उसभ जाव पउमलयभत्तिचित्ता ससारसारोवइयविधिहमणिरयणपादपीढा प्रच्छरगमिउमसूरगनवतयकुसंतलिचसोहकेसर पच्चुत्थयाभिरामा उपचियखोमदुगुल्लय पडिच्छायणा सुविरइयरयत्ताणा रत्तंसुयसंवया सुरम्मा आईणगल्यबूरणवणीयतूलमउयफासा मउया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तेसि णं सोहासणाणं उम्पि पत्तेयं पत्तेयं विजयदूसे पण्णत्ते / ते णं विजयदूसा सेया संखकुद. वगरयअमयमहियफेणपुजसन्निकासा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिलया। तेसि णं विजयदूसाणं बहुमज्झदेसमाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामया अंकुसा पण्णत्ता / तेसु गं वहरामएसु अंकुसेसु पत्तेयं पत्तेयं कुभिका मुत्तादामा पण्णता / ते णं कुभिका मुत्तादामा अन्नेहि चहि चहिं तबद्ध च्चप्पमाणमेताहि अबकु मिक्केहि मुत्तावामेहि सव्वओ समंता संपरिविखत्ता / ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया जाव चिट्ठति / तेसि णं पासायडिसगाणं उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता सोस्थिय तहेव जाव छत्ता। 130. उस विजयद्वार के दोनों तरफ दोनों नषेधिकाओं में दो प्रकण्ठक' (पीठविशेष) कहे गये हैं। ये प्रकण्ठक चार योजन के लम्बे-चौड़े और दो योजन की मोटाई वाले हैं। ये सर्व व्रजरस्न के हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप (मनोज्ञ) हैं। इन प्रकण्ठकों के ऊपर अलग-अलग प्रासादावतंसक (प्रासादों के बीच में मुकुटरूप प्रासाद) कहे गये हैं। ये प्रासादावतंसक चार योजन के ऊंचे और दो योजन के ये प्रासादावतंसक चारों तरफ से निकलती हई और सब दिशाओं में फैलती हई प्रभा से बँधे हुए हों ऐसे प्रतीत होते हैं अथवा चारों तरफ से निकलती हुई श्वेत प्रभापटल से हंसते हुए-से प्रतीत होते हैं / ये विविध प्रकार की मणियों और रत्नों की रचनाओं से विविध रूप वाले हैं अथवा विविध रत्नों की रचनाओं से आश्चर्य पैदा करने वाले हैं / वे वायु से कम्पित और विजय की सूचक वैजयन्ती नाम की पताका, सामान्य पताका और छत्रों पर छत्र से शोभित हैं, वे ऊंचे हैं, उनके शिखर आकाश को छू रहे हैं अथवा आसमान को लांघ रहे हैं / उनकी जालियों में रत्न जड़े हुए हैं, वे प्रावरण से बाहर निकली हुई वस्तु की तरह नये नये लगते हैं, उनके शिखर मणियों और सोने के हैं, विकसित शतपत्र, पुण्डरीक, तिलकरत्न और अर्धचन्द्र के चित्रों से चित्रित हैं, नाना प्रकार की मणियों की मालाओं से अलंकृत हैं, अन्दर और बाहर से श्लक्ष्ण-चिकने हैं, तपनीय स्वर्ण की बालुका इनके आंगन में बिछी हुई है / इनका स्पर्श अत्यन्त सुखदायक है / इनका रूप लुभावना है। ये प्रासादावतंसक प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। 1. 'प्रकण्ठो पीठविशेषो' इति मूलटीकाकारः / चूर्णिकारस्तु एवमाह आदर्शवृत्तीपर्यन्तावनतप्रदेशी पीठी प्रकण्ठाविति / लम्बे-च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org