________________ 370] [जीवाजीवाभिगमसूत्र विज्जुघणमरीचि-सूरविप्पंततेयप्राहिययरस निकासाओ सिगारागारधारुबेसाओ पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ तेयसा अतीव अतीव सोमेमाणीओ सोमेमाणीमो चिट्ठति / [129] (3) उस विजयद्वार के दोनों ओर नैषेधिकारों में दो दो सालभंजिका (पुतलियों) की पंक्तियाँ कही गई हैं / वे पुतलियाँ लीला करती हुई (सुन्दर अंगचेष्टाएँ करती हुई) चित्रित की गई हैं, सुप्रतिष्ठित–सुन्दर ढंग से स्थित की गई हैं, ये सुन्दर वेशभूषा से अलंकृत हैं, ये रंगबिरंगे कपड़ों से सज्जित हैं, अनेक मालाएँ उन्हें पहनायी गई हैं, उनकी कमर इतनी पतली है कि मुट्ठी में पा सकती है। उनके पयोधर (स्तन) समश्रेणिक चुचुकयुगल से युक्त हैं, कठिन होने से गोलाकार हैं, ये सामने की अोर उठे हए हैं, पुष्ट हैं अतएव रति-उत्पादक हैं। इन पुतलियों के नेत्रों के कोने लाल हैं, उनके बाल काले हैं तथा कोमल हैं, विशद-स्वच्छ हैं, प्रशस्त लक्षणवाले हैं और उनका अग्रभाग मुकुट से आवृत है। ये पुतलियां अशोकवृक्ष का कुछ सहारा लिये हुए खड़ी हैं / वामहस्त से इन्होंने अशोक वृक्ष की शाखा के अग्रभाग को पकड़ रखा है / ये अपने तिरछे कटाक्षों से दर्शकों के मन को मानो चुरा रही हैं। परस्पर के तिरछे अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो ये (एक दूसरे के सौभाग्य को सहन न करती हुई) एक दूसरी को खिन्न कर रही हों। ये पुत्तलिकाएँ पृथ्वीकाय का परिणामरूप हैं और शाश्वत भाव को प्राप्त हैं / इन पुतलियों का मुख चन्द्रमा जैसा है। ये चन्द्रमा की भांति शोभा देती हैं, आधे चन्द्र की तरह उनका ललाट है, उनका दर्शन चन्द्रमा से भी अधिक सौम्य है, उल्का (मूल से विच्छिन्न जाज्वल्यमान अग्निपुंज-चिनगारी) के समान ये चमकीली हैं, इनका प्रकाश बिजली की प्रगाढ किरणों और अनावृत सूर्य के तेज से भी अधिक है / उनकी प्राकृति शृगार-प्रधान है और उनकी वेशभूषा बहुत ही सुहावनी है / ये प्रसन्नता पैदा करने वाली, दर्शनीया, अभिरूपा और प्रतिरूपा हैं / ये अपने तेज से अतीव अतीव सुशोभित हो रही हैं। 126. (4) विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो दो जालकडगा पण्णत्ता / ते णं जालकडगा सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। विजयस्स गंदारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो घंटापरिवाडीओ पण्णत्ताओ। तासि गं घंटाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहाजंबूणयमईओ घंटाओ, बहरामईनो लालाओ णाणामणिमया घंटापासगा, तवणिज्जमईओ संकलाओ रययामईओ रज्जूओ। ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सरानो हंसस्सराओ कोचंस्सराओ गंदिस्सराओ गंदिघोसाओ सोहस्सराओ सोहघोसाओ मंजुस्सराओ मंजुघोसानो सुस्सराम्रो सुस्सरणिग्योसाओ ते पएसे ओरालेणं मणुण्णेणं कण्णमणनिम्वुइकरेणं सहेण जाव चिठ्ठति / विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो दो वणमालापरिवाडीओ पण्णत्ताओ। ताओ णं वणमालाओ णाणादुमलयाकिसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलसोभंतसस्सिरीयाओ पासाइयाओ० ते पएसे उरालेण जाव गंधेणं आपूरेमाणीयो जाव चिठ्ठति / [129] (4) उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नषेधिकारों में दो दो जालकटक (जालियों वाले रम्य स्थान) कहे गये हैं / ये जालकटक सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org