________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड की वावड़ियों आदि का वर्णन] [363 में ईहामृग (वृक), बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, व्याल (सर्प), किन्नर, रुरु (मृग), सरभ (अष्टापद), हाथी, वनलता और पद्मलता के चित्र बने हुए हैं। इन तोरणों के स्तम्भों पर वज्रमयी वेदिकाएँ हैं, इस कारण ये तोरण बहुत ही सुन्दर लगते हैं / समश्रेणी विद्याधरों के युगलों के यन्त्रों (शक्तिविशेष) के प्रभाव से ये तोरण हजारों किरणों से प्रभासित हो रहे हैं / (ये तोरण इतने अधिक प्रभासमुद समदाय से यक्त हैं कि इन्हें देखकर ऐसा भासित होता है कि ये स्वभावतः नहीं किन्तु किन्हीं विशिष्ट विद्याशक्ति के धारकों के यांत्रिक प्रभाव के कारण इतने अधिक प्रभासित हो रहे हैं) ये तोरण हजारों रूपकों से युक्त हैं, दीप्यमान हैं, विशेष दीप्यमान हैं, देखने वालों के नेत्र उन्हीं पर टिक जाते हैं। उन तोरणों का स्पर्श बहुत ही शुभ है, उनका रूप बहुत ही शोभायुक्त लगता है। वे तोरण प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के ऊपर बहुत से आठ-पाठ मंगल कहे गये हैं-१ स्वस्तिक, 2 श्रीवत्स, 3 नंदिकावर्त, 4 वर्धमान, 5 भद्रासन, 6 कलश, 7 मत्स्य और 8 दर्पण / ये सब पाठ मंगल सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित हैं, प्रासादिक हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के ऊर्वभाग में अनेकों कृष्ण कान्तिवाले चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं, नील वर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं, लाल वर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं, पीले वर्ण के चामरों से युक्त हैं और सफेद वर्ण के चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं। ये सब ध्वजाएँ स्वच्छ हैं, मृदू हैं, वनदण्ड के ऊपर का पट्ट चांदी का है, इन ध्वजाओं के दण्ड वजरत्न के हैं, इनकी गन्ध कमल के समान है, अतएव ये सुरम्य हैं, सुन्दर हैं, प्रासादिक हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं एवं प्रतिरूप हैं। इन तोरणों के ऊपर एक छत्र के ऊपर दूसरा छत्र, दूसरे पर तीसरा छत्र-इस तरह अनेक छत्र हैं, एक पताका पर दूसरी पताका, दूसरी पर तीसरी पताका-इस तरह अनेक पताकाएँ हैं / इन तोरणों पर अनेक घंटायुगल हैं, अनेक चामरयुगल हैं और अनेक उत्पलहस्तक (कमलों के समूह) हैं यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों के समूह हैं / ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप (बहुत सुन्दर) हैं। 127. (3) तासि गं खुडियाणं वावीणं जाव बिलपंतियाणं तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे उपायपध्वया णियइपम्वया जगतिपव्वया वारुपचयगा दगमंडवगा दगमंचका दगमालका दगपासायगा ऊसहा खुल्ला खडहडगा आंदोलगा पक्खंदोलगा सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसु गं उप्पायपव्वएसु जाव पक्खंदोलएसु बहवे हंसासणाई कोंचासणाई गरुलासणाई उण्णयासणाई पणयासणाई दोहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाइं उसभासणाई सोहासणाई पउमासणाई विसासोवस्थियासणाई सव्वरयणामयाई अच्छाई सहाई लण्हाई घटाई मट्ठाई णोरयाई णिम्मलाई निप्पकाई निक्कंकडच्छायाई सप्पभाई समिरोयाई, सउज्जोयाई पासादीयाई दरिसणिज्जाई अमिल्वाई पडिरूवाइं। [127] (3) उन छोटी बावड़ियों यावत् कूपपंक्तियों में उन-उन स्थानों में उन-उन भागों में बहुत से उत्पातपर्वत हैं, (जहाँ व्यन्तर देव-देवियां आकर क्रीडानिमित्त उत्तरवैक्रिय की रचना करते हैं), बहुत से नियतिपर्वत हैं (जो वानव्यंतर देव-देवियों के नियतरूप से भोगने में आते हैं) जगतीपर्वत हैं, दारुपर्वत हैं (जो लकड़ी के बने हुए जैसे लगते हैं), स्फटिक के मण्डप हैं, स्फटिकरत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org