________________ तृतीय प्रतिपति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [367 मयदामालंकिए अंतो य बहिं य सण्हे तवणिज्जरुइलवालयापस्थडे सुहप्फासे सस्सिरीयस्वे पासाइए ररिसणिज्जे अभिरुवे पडिल्ये। [129] (1) भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का विजयद्वार कहाँ कहा गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व में पैंतालीस हजार योजन प्रागे जाने पर तथा जंबूद्वीप के पूर्वान्त में तथा लवणसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम भाग में सीता महानदी के ऊपर जंबूद्वीप का विजयद्वार कहा गया है। यह द्वार पाठ योजन का ऊँचा, चार योजन का चौड़ा और इतना ही (चार योजन का) इसका प्रवेश है / यह द्वार श्वेतवर्ण का है, इसका शिखर श्रेष्ठ सोने का है / इस द्वार पर ईहामृग, वृषभ, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु (मृग), सरभ (अष्टापद), चमर, हाथी, वनलता और पद्मलता के विविध चित्र बने हए हैं / इसके खंभों पर बनी हुई वज्रवेदिकामों से युक्त होने के कारण यह बहुत ही आकर्षक है / यह द्वार इतने अधिक प्रभासमुदाय से युक्त है कि यह स्वभाव से नहीं किन्तु विशिष्ट विद्याशक्ति के धारक समश्रेणी के विद्याधरों के युगलों के यंत्रप्रभाव (शक्तिविशेष) से इतना प्रभासित हो रहा है-ऐसा लगता है / यह द्वार हजारों रूपकों से युक्त है / यह दीप्तिमान है, विशेष दीप्तिमान है, देखने वालों के नेत्र इसी पर टिक जाते हैं / इस द्वार का स्पर्श बहुत ही शुभ है या सुखरूप है। इसका रूप बहुत ही शोभायुक्त लगता है / यह द्वार प्रसन्नता पैदा करने वाला, दर्शनीय, सुन्दर है और बहुत ही मनोहर है / उस द्वार का विशेष वर्णनक इस प्रकार है इसकी नींव वज्रमय है / इसके पाये रिष्ट रत्न के बने हैं / इसके स्तंभ वैडूर्यरत्न के हैं / इसका बद्धभूमितल (फर्श) स्वर्ण से उपचित (रचित) और प्रधान पांच वर्गों की मणियों और रत्नों से जटित है। इसकी देहली हंसगर्भ नामक रत्न की बनी हई है। गोमेयक रत्न का इन्द्रकील है और लोहिताक्ष रत्नों की द्वारशाखाएं हैं। इसका उत्तरंग (द्वार पर तिर्यक् रखा हुआ काष्ठ) ज्योतिरस रत्न का है। इसके किवाड वैडूर्यमणि के हैं, दो पटियों को जोड़ने वाली कीलें लोहिताक्षरस्न को हैं, वज्रमय संधियां हैं, अर्थात् सांधों में वज्ररत्न भरे हुए हैं, इनके समुद्गक (सूतिकागृह) नाना मणियों के हैं, इसकी अर्गला भोर अर्गला रखने का स्थान वज्ररत्नों का है। इसकी पावर्तनपीठिका (जहां इन्द्रकील होता है) वज्ररत्न की है।' किवाड़ों का भीतरी भाग अंकरत्न का है / इसके दोनों किवाड़ अन्तररहित और सघन हैं। उस द्वार के दोनों तरफ की भित्तियों में 168 भित्तिगुलिका (पीठक तुल्य प्रालिया) हैं और उतनी ही (168) गोमानसी (शय्याएँ) हैं / इस द्वार पर नाना मणिरत्नों के व्याल-सर्यों के चित्र बने हैं तथा लीला करती हुई पुत्तलियाँ भी नाना मणिरत्नों की बनी हुई हैं। इस द्वार का माडभाग वज्ररत्नमय है और उस माडभाग का शिखर चांदी का है। उस द्वार की छत के नीचे का भाग तपनीय स्वर्ण का है। इस द्वार के झरोखे मणिमय बांस वाले और लोहिताक्षमय प्रतिबांस वाले तथा रजतमय भूमि वाले हैं। इसके पक्ष और पक्षबाह अंकरत्न के बने हुए हैं। ज्योतिरसरत्न के बांस और बांसकवेलु (छप्पर) हैं, रजतमयी पट्टिकाएँ हैं, जातरूप स्वर्ण की अोहाडणी (विरल आच्छादन) हैं, वज्ररत्नमय ऊपर की पुंछणी (अविरल आच्छादन) हैं और सर्वश्वेत 1. वृत्ति में 'रययामयी भावत्तणपेढिया' पाठ है / अर्थात् प्रावर्तनपीठिका चांदी की है। 2. प्राह भूल टीकाकार:-कूडो-माडभागः उच्छ्यः शिखरमिति / केवलं शिखरमत्र माडभागस्य सम्बन्धि दृष्टव्यं न द्वारस्य, तस्य प्रागेव प्रोक्तात्वात् / --टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org