________________ 296] [ीवानीवाभिगमसूत्र दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष [6] एगोल्यदीवेणं दीवे तस्य तत्व बहवे दीवसिहा णाम दुमगणा पणत्ता, समणाउसो! बहा से संसाविरागसमए नवणिहिपइणो दीविया बकवालविरे पमूय वट्टिपलिसणेहे पणि उज्जालियतिमिरमवद्दए कणगनिकर कुसुमित पालि जातय वणप्पगासे कंचनमणिरयणविमल महरिह तवभिम्जुज्जल विचित्तरंगहि बीवियाहिं सहसा पज्जलियउसवियणि तेयविप्पंतविमलगहगण समप्पहाहि वितिमिरकरसूरपसरियउल्लोय चिल्लयाहि जालज्जल पहसियाभिरामेहि सोमेमाणा तहेव ते दीवसिहा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वोससा परिणामाए उज्जोयविहीए उववेया फलेहि पुष्णा विसट्टति कुसविकुसविसुक्खमूला जाव चिट्ठति // 4 // [111] (6) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में यहां-वहाँ बहुत-से दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे यहाँ सन्ध्या के उपरान्त समय में नवनिधिपति चक्रवर्ती के यहाँ दीपिकाएं होती हैं जिनका प्रकाशमण्डल सब ओर फैला होता है तथा जिनमें बहुत सारी बत्तियाँ और भरपूर तेल भरा होता है, जो अपने घने प्रकाश से अन्धकार का मर्दन करती हैं, जिनका प्रकाश कनकनिका (स्वर्णसमूह) जैसे प्रकाश वाले कुसुमों से युक्त पारिजात (देववृक्ष) के वन के प्रकाश जैसा होता है सोना मणिरत्न से बने हुए, विमल, बहुमूल्य या महोत्सवों पर स्थापित करने योग्य, तपनीय-स्वर्ण के समान उज्ज्वल और विचित्र जिनके दण्ड हैं, जिन दण्डों पर एक साथ प्रज्वलित, बत्ती को उकेर कर अधिक प्रकाश वाली किये जाने से जिनका तेज खूब प्रदीप्त हो रहा है तथा जो निर्मल ग्रहगणों की तरह प्रभासित हैं तथा जो अन्धकार को दूर करने वाले सूर्य की फलो हुई प्रभा जैसी चमकीली हैं, जो अपनी उज्ज्वल ज्वाला (प्रभा) से मानो हँस रही हैं--ऐसी वे दीपिकाएँ शोभित हीती हैं वैसे ही वे दीपशिखा नामक वृक्ष भी अनेक और विविध प्रकार के विस्रसा परिणाम वाली उद्योतविधि से (प्रकाशों से) युक्त हैं। वे फलों से पूर्ण हैं, विकसित हैं, कुशविकुश से विशुद्ध उनके मूल हैं यावत् वे श्री से प्रतीव प्रतीव शोभायमान हैं / / 4 / / ज्योतिशिखा नामक कल्पवृक्ष [7] एगोळ्यवीवे णं दीवे तत्थ तत्थ बहवे जोतिसिहा' णाम. दुमगणा पण्णता समणाउसो! जहा से अच्चिरुग्गय सरयसूरमंडल घडत उक्कासहस्सविप्पंत विजुज्जालहुयवहनि मजलियनित षोय तत्त तवणिज्ज किसुयासोयजवाकुसुमविमुरलिय पुंज माणिरयणकिरण जच्चहिंगलय निगर. रूबाइरेकरूवा तहेव ते जोतिसिहा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वोससा परिणयाए उज्जोयविहीए उववेया सुहलेस्सा मंवलेस्सा मंदायवलेस्सा फडाय इव ठाणठिया अन्नमन्त्रसमोगाढाहिं लेस्साए साए पभाए सपवेसे सम्बो समंता प्रोभासेंति उज्जोर्वेति पभासेंति; कुसविकुसविसुरक्खमूला जाव चिट्ठति // 5 // [111] (7) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में जहां-तहां बहुत से ज्योतिशिखा(ज्योतिष्क) नाम के काल्पवृक्ष हैं। जैसे तत्काल उदित हुप्रा शरत्कालीन सूर्यमण्डल, गिरती हुई हजार उल्काएं, 1. जोइसिया- इति पाठान्तरम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org