________________ ततीय प्रतिपत्ति त्रुटितांग कल्पवृक्ष] 293 पत्तो थाल मल्लग चवलिय दगवारक विचित्रवट्टक मणिवट्टक सुत्तिचापोणया कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता भायणविहिए बहुप्पगारा तहेव ते भियंगा वि दुमगणा अणेग बहुगविविहवीससा परिणमाए मायणविहीए उववेया फलेहि पुग्णा विसति कुसविकुसविसुद्धएक्खमूला जाव चिट्ठति // 2 // [111] (4) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहां-तहाँ बहुत से भृत्तांग नामके कल्पवृक्ष हैं। जैसे वारक (मंगलघट), घट, करक, कलश, कर्करी (गगरी), पादकंचनिका (पांव धोमे की सोने की पात्री), उदंक (उलचना), वणि (लोटा), सुप्रतिष्ठक (फूल रखने का पात्र), पारी (घीतेल का पात्र), चषक (पानपात्र-गिलास आदि), भिंगारक (झारी), करोटि (कटोरा), शरक, थरक (पात्रविशेष), पात्री, थाली, जलभरने का घड़ा, विचित्र वर्तक (भोजनकाल में घृतादि रखने के पात्रविशेष), मणियों के वर्तक, शक्ति (चन्दनादि घिसकर रखने का छोटा पात्र) अादि बर्तन जो सोने, मणिरत्नों के बने होते हैं तथा जिन पर विचित्र प्रकार की चित्रकारी की हुई होती है वैसे ही ये मृत्तांग कल्पवृक्ष भाजनविधि में नाना प्रकार के विस्रसापरिणत भाजनों से युक्त होते हैं, फलों से परिपूर्ण और विकसित होते हैं / ये कुश-कास से रहित मूल वाले यावत् शोभा से अतीव शोभायमान होते हैं / / 2 // त्रुटितांग कल्पवृक्ष [5] एपोल्यवीवे णं वोवे तत्थ तस्थ बहवे तुडियंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से प्रालिंग-पुयंग-पणव-पडह-दद्दरग-करहिडिडिम-भंमाहोरंभ-कणियास्वरमुहि-मुगुद-संखियपरिलीवच्चग परिवाइणिवंसावेणु-वीणा सुघोस-विवंचि महति कच्छमि रगसरा तलताल कंसताल सुसंपउत्ता आतोज्ज विहिणि उणगंधव्वसमयकुसलेहि फंदिया तिढाणसुद्धा तहेव ते तडियंगा वि दुमगणा अणेग बहुविविष वीससापरिणामाए ततविततघणसुसिराए चउम्विहाए आतोज्जविहीए उववेया फलेहि पुग्णा विसट्टति कुस-विकुस विसुद्धरक्खमूला जाव चिट्ठन्ति // 3 // [111] (5) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुकद्वीप में जहां-तहाँ बहुत सारे त्रुटितांग नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे मुरज, मृदंग, प्रणव (छोटा ढोल), पटह (ढोल), दर्दरक (काष्ट की चौकी पर रख कर बजाया जाने वाला तथा गोधादि के चमड़े से मढा हुआ वाद्य), करटी, डिडिम, भंभा-दुक्का, होरंभ (महाढक्का), क्वणित (वीणाविशेष), खरमुखी (काहला), मुकुंद (मृदंगविशेष), शंखिका (छोटा शंख), परिली-बच्चक (घास के तृणों को गूंथकर बनाये जाने वाले वाद्यविशेष), परिवादिनी (सात तार वाली वीणा), वंश (बांसुरी), वीणा-सुघोषा-विपंची-महती कच्छपी (ये सब वीणाओं के प्रकार हैं), रिगसका (घिसकर बजाये जाने वाला वाद्य), तलताल (हाथ से बजाई जाने वाली ताली), कांस्यताल (कांसी का वाद्य जो ताल देकर बजाया जाता है) आदि वादित्र जो सम्यक् प्रकार से बजाये जाते हैं, वाद्यकला में निपुण एवं गन्धर्वशास्त्र में कुशल व्यक्तियों द्वारा जो स्पन्दित किये जाते हैं-बजाये जाते हैं, जो प्रादि-मध्य-अवसान रूप तीन स्थानों से शुद्ध हैं, वैसे ही ये त्रुटितांग कल्पवृक्ष नाना प्रकार के स्वाभाविक परिणाम से परिणत होकर तत-वितत-घन और शुषिर रूप चार प्रकार की वाद्यविधि से युक्त होते हैं / ये फलादि से लदे होते हैं, विकसित होते हैं। ये वृक्ष कुश-विकुश से रहित . मूल वाले यावत् श्री से अत्यन्त शोभायमान होते हैं / / 3 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org