________________ 394] __ [जीवाणीवाभिगमसूत्र ... उस एकोषकद्वीप में जगह-जगह बहुत सी पालताएँ यावत् श्यामलताएँ हैं जो नित्य कुसुमित रहती हैं--प्रादि लता का वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार कहना चाहिए यावत् वे अत्यन्त प्रसन्नता उत्पन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। ___ उस एकोषकद्वीप में जगह-जगह बहुत से सेरिकागुल्म यावत् महाजातिगुल्म हैं / (जिनका स्कंध तो छोटा हो किन्तु शाखाएँ बड़ी-बड़ी हों और पत्र-पुष्पादि से लदे रहते हैं उन्हें गुल्म कहते हैं / ) वे गुल्म पांच वर्षों के फूलों से नित्य कुसुमित रहते हैं / उनकी शाखाएँ पवन से हिलती रहती हैं जिससे उनके फूल एकोरुकद्वीप के भूमिभाग को आच्छादित करते रहते हैं / (ऐसा प्रतीत होता है मानो ये एकोरुकद्वीप के बहुसमरमणीय भूमि भाग पर फूलों की वर्षा कर रहे हों।) एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत सी वनराजियाँ हैं / वे वनराजियाँ अत्यन्त हरी-भरी होने से काली प्रतीत होती हैं, काली ही उनकी कान्ति है यावत् वे रम्य हैं और महामेघ के समुदायरूप प्रतीत होती हैं यावत् वे बहुत ही मोहक और तृप्तिकारक सुगंध छोड़ती हैं और वे अत्यन्त प्रसन्नता पैदा करने वाली दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं / (वनों को पंक्तियों को वनराजि कहते मत्तांग कल्पवृक्ष का वर्णन [3] एगोख्यदीवे तत्थ तत्य वहवे मत्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से चंदप्पममणि सिलागवरसीषुपवरवाणि सुजातफलपत्तपुप्फचोयणिज्जाससारबहुदवत्तिसंभारकाल संधियासवा महुमेरगरिट्ठाभदुद्धजातीपसन्नमेल्लगसयाउ खज्जरमुद्दियासारकाविसायण सुपक्कखोयरसवरसुरा वण्णरसगंधफरिसजुत्तबलवीरियपरिणामा मज्जविहित्थबहुप्पगारा तदेवं ते मतंगया वि दुमगणा अणेगबहुविविधवीससा परिणयाए मज्जविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसटेंति कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति // 1 // {111] (3) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर मत्तांग नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे चन्द्रप्रभा, मणि-शलाका श्रेष्ठ सीधु, प्रवरवारुणी, जातिवंत फल-पत्र-पुष्प सुगंधित द्रव्यों से निकाले हुए सारभूत रस और नाना द्रव्यों से युक्त एवं उचित काल में संयोजित करके बनाये हुए पासव, मधु, मेरक, रिष्टाभ, दुग्धतुल्यस्वाद वाली प्रसन्न, मेल्लक, शतायु, खजूर और मृद्विका (दाख) के रस, कपिश (धम) वर्ण का गुड का रस, सपक्व क्षोद (काष्ठादि चों का) रस, वरसरा आदि विविध मद्य प्रकारों में जैसे वर्ण, रस, गंध और स्पर्श तथा बलवीर्य पैदा करने वाले परिणमन होते हैं, वैसे ही वे मत्तांग वृक्ष नाना प्रकार के विविध स्वाभाविक परिणाम वाली मद्यविधि से युक्त और फलों से परिपूर्ण हैं एवं विकसित हैं / वे कुश और कांस से रहित मूल वाले तथा शोभा से अतीवअतीव शोभायमान हैं // 1 // भृतांग कल्पवृक्ष का वर्णन [4] एक्कोरएबीवे तत्थ तत्थ बहवे भियंगा णाम दुमगणा पण्णता समजाउसो! जहा से कारगघडकरगकलसकरकरिपायकंचणि-उदक-वणि-सुपतिढगपारीचसकभिंगारकरोडि सरग यरग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org