________________ तृतीय प्रतिपत्ति :वानव्यन्तरों का अधिकार] [339 ___वे भौमेय नगर बाहर से गोल, अन्दर से चौरस तथा नीचे से कमल की कणिका के प्राकार से संस्थित हैं / उनके चारों ओर गहरी और विस्तीर्ण खाइयां और परिखाएँ खुदी हुई हैं। वे यथास्थान प्राकारों, अट्टालकों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से युक्त हैं। इत्यादि वर्णन सूत्र 117 के विवेचन के अनुसार समझ लेना चाहिए / यावत् वे भवन प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन नगरावासों में बहुत से पिशाच आदि वानव्यन्तर देव रहते हैं। वे देव अनवस्थित चित्त के होने से अत्यन्त चपल, क्रीडातत्पर और परिहास-प्रिय होते हैं / गंभीर हास्य, गीत और नृत्य में इनकी अनुरक्ति रहती है / वनमाला, कलंगी, मुकुट, कुण्डल तथा इच्छानुसार विकुक्ति प्राभूषणों से वे भली-भांति मण्डित रहते हैं / सभी ऋतुओं में होने वाले सुगन्धित पुष्पों से रचित, लम्बी, शोभनीय सुन्दर एवं खिलती हुई विचित्र वनमाला से उनका वक्षःस्थल सुशोभित रहता है। अपनी कामनानुसार काम-भोगों का सेवन करने वाले, इच्छानुसार रूप एवं देह के धारक, नाना प्रकार के वर्णों वाले श्रेष्ठ विचित्र चमकीले वस्त्रों के धारक, विविध देशों की वेशभूषा धारण करने वाले होते हैं / इन्हें प्रमोद, कन्दर्प (कामक्रीडा) कलह, केलि और कोलाहल प्रिय है। इनमें हास्य और बोल-चाल बहुत होता है। इनके हाथों में खड्ग, मुद्गर, शक्ति और भाले भी रहते हैं। ये अनेक मणियों और रत्नों के विविध चिह्न वाले होते हैं / वे महद्धिक, महाद्युतिमान्, महायशस्वी, महाबलवान्, महानुभाव, महासामर्थ्यशाली, महासुखी और हार से सुशोभित वक्षःस्थल वाले होते हैं / कड़े और बाजबन्द से उनकी भुजाएँ स्तब्ध रहती हैं। अंगद और कुण्डल इनके कपोलस्थल को स्पर्श किये रहते हैं / ये कानों में कर्णपीठ धारण किये रहते हैं। इनके शरीर अत्यन्त देदीप्यमान होते हैं। बे लम्बी वनमालाएँ धारण करते हैं। दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्युति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया (कांति) से, दिव्य अचि (ज्योति) से, दिव्य तेज से एवं दिव्य लेश्या से, दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए विचरते हैं। वे अपने लाखों भौमेय नगरावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपनी-अपनी अग्र महिषियों का, अपनी अपनी परिषदों का, अपनी अपनी सेनामों का, अपने अपने सेनाधिपति देवों का, अपने अपने प्रात्मरक्षकों और अन्य बहुत से वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, प्राज्ञैश्वरत्व एवं सेनापतित्व करते-कराते तथा उनका पालन करतेकराते हुए, महान् उत्सव के साथ नृत्य, गीत और वीणा, तल, ताल, त्रुटित घन मृदंग प्रादि वाद्यों को बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य उपभोग्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं। उक्त वर्णन सामान्यरूप से वानव्यन्तरों के लिए है। विशेष विवक्षा में पिशाच आदि वानव्यन्तरों का वर्णन भी इसी प्रकार जानना चाहिए / अर्थात् उन भौमेयनगरों में पिशाचदेव अपने अपने भवन, सामानिक प्रादि देव-देवियों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं। इन नगराबासों में दो पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल और महाकाल निवास करते हैं। वे महद्धिक महाद्युतिमान यावत् दिव्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं। दक्षिणवर्ती क्षेत्र का इन्द्र पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल है और उत्तरवर्ती क्षेत्र का इन्द्र पिशाचेन्द्र पिशाचराज महाकाल है। वह पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल तिरछे असंख्यात भूमिगृह जैसे लाखों नागरावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org