Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 360] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भीत, द्रुत, उप्पिच्छ, (आकुलतायुक्त), उत्ताल, काकस्वर और अनुनास (नाक से गाना), ये गेय के छह दोष हैं। एकादशगुणालंकार--पूर्वो के अन्तर्गत स्वरप्राभृत में गेय के ग्यारह गुणों का विस्तार से वर्णन है / वर्तमान में पूर्व विच्छिन्न हैं अतएव आंशिक रूप में पूर्वो से विनिर्गत जो भरत, विशाखिल आदि गेय शास्त्र हैं-उनसे इनका ज्ञान करना चाहिए। प्रष्टगुणोपेत-गेय के आठ गुण इस प्रकार हैं पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहेव अविघुट / महुरं समं सुललियं अट्ठगुणा होति गेयस्स / / 1 पूर्ण--जो स्वर कलाओं से परिपूर्ण हो, 2 रक्त-राग से अनुरक्त होकर जो गाया जाय, 3 प्रलंकृत--परस्पर विशेषरूप स्वर से जो गाया जाय, 4 व्यक्त-जिसमें अक्षर और स्वर स्पष्ट रूप से गाये जायँ, 5 अविघुष्ट-जो विस्वर और आक्रोश युक्त न हो, 6 मधुर--जो मधुर स्वर से गाया जाय, 7 सम-- जो ताल, वंश, स्वर आदि से मेल खाता हुआ गाया जाय, 8 सुललित--जो श्रेष्ठ घोलना प्रकार से श्रोत्रेन्द्रिय को सुखद लगे, इस प्रकार गाया जाय / ये गेय के पाठ गुण हैं। गुंजत वंशकुहरम्-जो बांसुरी में तीन सुरीली आवाज से गाया गया हो, ऐसा गेय / रत्तं---राग से अनुरक्त गेय / त्रिस्थानकरणशुद्ध-जो गेय उर, कंठ और सिर इन तीन स्थानों से शुद्ध हो / अर्थात् उर और कंठ श्लेष्मवर्जित हो और सिर अव्याकुलित हो। इस तरह गाया गया गेय त्रिस्थानकरणशुद्ध होता है। सकुहरगुजंतवंसतंतोसुसंपउत्त--जिस गान में एक तरफ तो बांसुरी बजाई जा रहा हो और दूसरी ओर तंत्री (वीणा) बजाई जा रही हो, इनके स्वर से जो गान अविरुद्ध हो अर्थात इनके स्वरों से मिलता हुमा गाया जा रहा हो। तालसुसंप्रयुक्त-हाथ की तालियों से मेल खाता हुआ गाया जा रहा हो / तालसमं लयसंप्रयुक्त ग्रहसुसंप्रयुक्त ताल, लय तथा वीणादि के स्वर से मेल खाता हुआ गाया जाने वाला गेय। मणोहरं-मन को हरने वाला गेय / मदुरिभितपदसंचार-मृदु स्वर से युक्त, तंत्री आदि से ग्रहण किये गये स्वर से युक्त पदसंचार वाला गेय / सुरई-श्रोताओं को प्रानन्द देने वाला गेय / सुनति-अंगों के सुन्दर हावभाव से युक्त गेय / वरचारुरूपं-विशिष्ट सुन्दर रूप वाला गेय / उक्त विशेषणों से युक्त गेय को जब पूर्वोक्त व्यन्तर, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व प्रमुदित होकर गाते हैं तब उनसे जो शब्द निकलता है, ऐसा मनोहर शब्द उन तृणों और मणियों का है क्या ? ऐसा श्री गौतमस्वामी ने प्रश्न किया। इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि हां -गौतम ! उन तृणों और मणियों का इतना सुन्दर शब्द होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org