________________ सृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड वर्णन] (359 सुहमुत्तर पायामा छट्टी सा नियमसो उ बोद्धव्वा // 2 // नन्दी, क्षुद्रा, पूर्णा, शुद्धगान्धारा, उत्तरगान्धारा, सूक्ष्मोत्तर-आयामा और उत्तरमन्दा-ये सात मूर्छनाएँ हैं / ये मूर्छनाएं इसलिए सार्थक हैं कि ये गाने वाले को और सुनने वाले को अन्य-अन्य स्वरों से विशिष्ट होकर मूछित जैसा कर देती हैं / कहा है __ अन्नन्नसरविसेसं उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया। कन्ता वि मुच्छिनो इव कुणए मुच्छंव सो वेति // गान्धारस्वर के अन्तर्गत मूर्च्छनाओं के बीच में उत्तरमन्दा नाम की मूर्छना जब अति प्रकर्ष को प्राप्त हो जाती है तब वह श्रोताजनों को मूछित-सा बना देती है। इतना ही नहीं किन्तु स्वरविशेषों को करता हुआ गायक भी मूर्छित के समान हो जाता है। _ ऐसी उत्तरमन्दा मूर्छना से युक्त वीणा का जैसा शब्द निकलता है क्या वैसा शब्द उन तृणों और मणियों का है ? ऐसा श्री गौतमस्वामी के कहने पर भगवान कहते हैं-नहीं इस स्वर से भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उन तृणों और मणियों का शब्द होता है। पुनः श्री गौतमस्वामी तीसरा उपमान कहते हैं-भगवन् ! जैसा किन्नरों, किंपुरुषों, महोरगों या गन्धों का, जो भद्रशालवन, नन्दनवन, सोमनसवन, पण्डकवन में स्थित हों अथवा हिमवान्पर्वत या मलयपर्वत या मन्दरपर्वत की गुफा में बैठे हों, एक स्थान पर एकत्रित हुए हों, एक दूसरे के समक्ष बैठे हुए हों, इस ढंग से बैठे हों कि किसी को दूसरे की रगड़ से बाधा न हो, स्वयं को भी किसी अपने ही अंग से बाधा न पहूँच रही हो, हर्ष जिनके शरीर पर खेल रहा हो, जो आनन्द के साथ क्रीडा करने में रत हों, गीत में जिनकी रति हो, नाटयादि द्वारा जिनका मन हर्षित हो रहा हो--(ऐसे गन्धों का) आठ प्रकार के गेय से तथा आगे उल्लिखित गेय के गुणों से सहित और दोषों से रहित ताल एवं लय से युक्त गीतों के गाने से जो स्वर निकलता है क्या वैसा उन तृण और मणियों का शब्द होता है ? गेय आठ प्रकार के हैं-१ गद्य--जो स्वर संचार से गाया जाता है, 2 पद्य-जो छन्दादिरूप हो, 3 कथ्य-कथात्मक गीत, 4 पदबद्ध-जो एकाक्षरादि रूप हो यथा-'ते', 5 पादबद्ध-श्लोक का चतुर्थ भाग रूप हो, 6 उत्क्षिप्त-जो पहले प्रारम्भ किया हुआ हो, 7 प्रवर्तक-प्रथम प्रारम्भ से ऊपर आक्षेपपूर्वक होने वाला, 8 मन्दाकं-मध्यभाग में सकल मूर्च्छनादि गुणोपेत तथा मन्द-मन्द स्वर से संचरित हो। ___ वह आठ प्रकार का गेय रोचितावसान वाला हो, अर्थात् जिस गीत का अन्त रुचिकर ढंग से शनैः शनैः होता हो तथा जो सप्तस्वरों से युक्त हो / गेय के सात स्वर इस प्रकार हैं सज्जे रिसह गन्धारे मज्झिमे पंचमे सरे / धेवए चेव नेसाए सरा सत्त वियाहिया / / षड्ज, ऋषभ, गन्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और नैषाद, ये सात स्वर हैं / ये सात स्वर पुरुष के या स्त्री के नाभिदेश से निकलते हैं, जैसा कि कहा है-~-'सप्तसरा नाभियो' / अष्टरस-संप्रयक्त-वह गेय श्रगार आदि पाठ रसों से युक्त हो। षड्दोष-विप्रयुक्त-वह गेय छह दोषों से रहित हो / वे छह दोष इस प्रकार हैं भीयं दुयमुप्पित्थमुत्तालं च कमसो मुणेयव्वं / कागस्सरमणुणासं छद्दोसा होति गेयस्स / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org