Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 350] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सुनिवेसिय रम्यजालघरगा पिडिम, सुहसुरहिमणोहरं महया गंपद्धणि णिच्चं मुंचमाणा सुहसे उकेउ बहुला.....] अणेगसगड-रह-जाण-जुग्ग (सिविय- संदमाणिय) परिमोयणे सुरम्मे पासाईए सण्हे लण्हे घट्ट म8 नोरए निष्पके निम्मले निक्कंकडच्छाए सप्पमे समिरीए सउज्जोए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे। तस्स णं वणसंडस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिमाए पण्णत्ते, से जहानामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा मुइंगपुक्खरे इ वा सरतले इ वा करतले इ वा आयसमंडले इ वा चंदमंडले इ वा सूरमंडले इवा उरम्भचम्भे इ वा, उसभचम्मे इ वा वराहचम्मे इ वा सोहचम्मे इ वा वग्घचम्मे इ वा विगचम्मे इवा अगसंकुकीलगसहस्सवितते आवड-पच्चाबड सेढीपसेढीसोत्थियसोवस्थियपूसमाण-वढमाण-मच्छंडकमकरंडक-जारमार-फुल्लावलि-पउमपत्त-सागरतरंग-वासंतिलय-पउमलयभत्तिचिहि सच्छाएहिं समिरीएहि नानाविहपंचवणेहि तणेहि य मणिहि य उवसोहिए तं जहा-किण्हेहिं जाव सुक्किलेहिं / [126] (1) उस जगती (प्राकारकल्प) के ऊपर और पद्मवरवेदिका के बाहर एक बड़ा विशाल वनखण्ड' कहा गया है। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोल विस्त उसकी परिधि जगती की परिधि के समान ही है। वह वनखण्ड खूब हराभरा होने से तथा छायाप्रधान होने से काला है और काला ही दिखाई देता है। यावत् [उस वनखण्ड के वृक्षों के मूल बहुत दूर तक जमीन के भीतर गहरे गये हुए हैं, वे प्रशस्त कंद वाले, प्रशस्त स्कन्धवाले, प्रशस्त छाल वाले, प्रशस्त शाखा वाले, प्रशस्त किशलय वाले, प्रशस्त पत्र वाले और प्रशस्त फूल-फल और बीज वाले हैं। वे सब पादप समस्त दिशाओं में और विदिशामों में अपनी-अपनी शाखाप्रशाखाओं द्वारा इस ढंग से फैले हुए हैं कि वे गोल-गोल प्रतीत होते हैं। वे मूलादि क्रम से सुन्दर, सुजात और रुचिर (सुहावने) प्रतीत होते हैं। ये वृक्ष एक-एक स्कन्ध वाले हैं। इनका गोल स्कन्ध इतना विशाल है कि अनेक पुरुष भी अपनी फैलायी हई बाहों में उसे ग्रहण नहीं कर सकते / इन वृक्षों के पत्ते छिद्ररहित हैं, अविरल हैं---इस तरह सटे हुए हैं कि अन्तराल में छेद नहीं दिखाई देता / इनके पत्त वायु से नीचे नहीं गिरते हैं, इनके पत्तों में ईति-रोग नहीं होता / इन वृक्षों के जो पत्तपुराने पड़ जाते हैं या सफेद हो जाते हैं वे हवा से गिरा दिये जाते हैं और अन्यत्र डाल दिये जाते हैं। नये और हरे दीप्तिमान पत्तों के झुरमुट से होनेवाले अन्धकार के कारण इनका मध्यभाग दिखाई न पड़ने से ये रमणीय-दर्शनीय लगते हैं / इनके अग्रशिखर निरन्तर निकलने वाले पल्लवों और कोमल-उज्जवल तथा कम्पित किशलयों से सुशोभित हैं। ये वृक्ष सदा कुसुमित रहते हैं, नित्य मुकुलित रहते हैं, नित्य पल्लवित रहते हैं, नित्य स्तबकित रहते हैं, नित्य गुल्मित रहते नित्य गुच्छित रहते हैं, नित्य यमलित रहते हैं, नित्य युगलित रहते हैं, नित्य विनमित रहते हैं, एवं नित्य प्रणमित रहते हैं / इस प्रकार नित्य कुसुमित यावत् नित्य प्रणमित बने हुए ये वृक्ष सुविभक्त प्रतिमंजरी रूप अवतंसक को धारण किये रहते हैं। इन वृक्षों के ऊपर शुक के जोड़े, मयूरों के जोड़े, मदनशलका-मैना के जोड़े, कोकिल के जोड़े, चक्रवाक के जोड़े, कलहंस के जोड़े, सारस के जोड़े इत्यादि अनेक पक्षियों के जोड़े बैठे-बैठे बहुत दूर 1. 'एगजाइएहिं रुक्खेहि वणं अणेगजाइएहि उत्तमेहिं रुक्खेहि वणसंडे'–एक सरीखे वृक्ष जहाँ हों वह वन और अनेक जाति के उत्तम वक्ष जहाँ हों वह बनखण्ड है। -वृत्ति ह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org