________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण वर्णन ] [351 तक सुने जाने वाले उन्नत शब्दों को करते रहते हैं-चहचहाते रहते हैं, इससे इन वृक्षों की सुन्दरता में विशेषता आ जाती है। मधु का संचय करने वाले उन्मत्त भ्रमरों और भ्रमरियों का समुदाय उन पर मंडराता रहता है। अन्य स्थानों से पा-पाकर मधुपान से उन्मत्त भंवरे पुष्पपराग के पान में मस्त बनकर मधुर-मधुर गुंजारव से इन वृक्षों को गुंजाते रहते हैं। इन वृक्षों के पुष्प और फल इन्हीं के भीतर छिपे रहते हैं / ये वृक्ष बाहर से पत्रों और पुष्पों से प्राच्छादित रहते हैं / ये वृक्ष सब प्रकार के रोगों से रहित हैं, कांटों से रहित हैं / इनके फल स्वादिष्ट होते हैं और स्निग्धस्पर्श वाले होते हैं / ये वृक्ष प्रत्यासन्न नाना प्रकार के गुच्छों से गुल्मों से लतामण्डपों से सुशोभित हैं / इन पर अनेक प्रकार की ध्वजाएँ फहराती रहती हैं। इन वृक्षों को सींचने के लिए चौकोर वावडियों में, गोल पुष्करिणियों में, लम्बी दीपिकाओं में सुन्दर जालगृह बने हुए हैं। ये वृक्ष ऐसी विशिष्ट मनोहर सुगंध को छोड़ते रहते हैं कि उससे तृप्ति ही नहीं होती। इन वृक्षों की क्यारियां शुभ है और उन पर जो ध्वजाएँ हैं वे भी अनेक रूप वाली हैं।] अनेक गाड़ियां, रथ, यान, युग्य (गोल्लदेश प्रसिद्ध जम्पान), शिविका और स्यन्दमानिकाएँ उनके नीचे (छाया अधिक होने से) छोड़ी जाती हैं। वह वनखण्ड सुरम्य है, प्रसन्नता पैदा करने वाला है, श्लक्ष्ण है, स्निग्ध है, घृष्ट है, मृष्ट है, नीरज है, निष्पंक है, निर्मल है, निरुपहत कान्ति वाला है, प्रभा वाला है, किरणों वाला है, उद्योत करने वाला है, प्रासादिक है. दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है। उस वनखण्ड के अन्दर अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग है। वह भूमिभाग मुरुज (वाद्यविशेष) के मढे हुए चमड़े के समान समतल है, मृदंग के मढे हुए चमड़े के समान समतल है. पानी से भरे सरोवर के तल के समान, हथेली के समान, दर्पणतल के समान, चन्द्रमण्डल के समान, सूर्यमण्डल के समान, उरभ्र (धेटा) के चमड़े के समान, बैल के चमड़े के समान, वराह (सुअर) के चर्म के समान, सिंह के चर्म के समान, व्याघ्रचर्म के समान, भेडिये के चर्म के समान और चीते के चमड़े के समान समतल है। इन सब पशुओं का चमड़ा जब शंकु प्रमाण हजारों कीलों से ताड़ित होता हैखींचा जाता है तब वह बिल्कुल समतल हो जाता है (अतएव उस भूमिभाग की समतलता को बताने के लिए ये उपमाएँ हैं।) वह वनखण्ड पावर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पूष्यमाणव, वर्धमानक, मत्स्यंडक, मकरंडक, जारमारलक्षण वाली मणियों, नानाविध पंचवर्ण वाली मणियों, पुष्पावली, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता आदि विविध चित्रों से युक्त मणियों और तृणों से सुशोभित है। वे मणियां कान्ति वाली, किरणों वाली, उद्योत करने वाली और कृष्ण यावत शक्ल रूप पंचवर्णों वाली हैं / ऐसे पंचवर्णी मणियों और तृणों से वह वनखण्ड सुशोभित है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में वनखण्ड का वर्णन किया गया है। कुछ कम दो योजन प्रमाण विस्तार वाला और जगती के समान ही परिधि वाला यह वनखण्ड खूब हराभरा होने से तथा छायाप्रधान होने से काला है और काला दिखाई देता है। इसके आगे 'यावत्' शब्द दिया गया है, उससे अन्यत्र दिये गये अन्य विशेषण इस प्रकार जानने चाहिए - हरिए हरिओभासे-कहीं-कहीं बनखण्ड हरित है और हरितरूप में ही उसका प्रतिभास होता है। नीले नीलोभासे-कहीं-कहीं यह वनखण्ड नीला है और नीला ही प्रतिभासित होता है। हरित अवस्था को पार कर कृष्ण अवस्था को नहीं प्राप्त हुए पत्र नीले कहे जाते हैं। इनके योग से उस वनखण्ड को नील और नीलावभास कहा गया है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org