________________ तृतीय प्रतिपत्ति : पप्रवरवेदिका का वर्णन] [347 से केणठे गं भंते ! एवं वुच्चइ-पउमवरवेइया पउमवरवेइया ? गोयमा ! पउमवरवेइयाए तत्थ तत्य देसे तहि तहिं वेदियासु वेदियाबाहासु वेदियासीसफलएसु वेदियापुडंतरेसु खमेसु खंभबाहासु खंभसोसेसु खंभपुडंतरेसु सूईसु सूईमुहेसु सूईफलएसु सूईपुडतरेसु पक्खेसु पक्खबाहासु पक्खपेरंतरेसु बहूई उप्पलाई पउमाई जाव सयसहस्सपत्ताई सध्वरयणामयाइं अच्छाई सहाई लण्हाई धट्ठाई मट्टाई गोरयाई णिम्मलाई निप्पंकाई निक्कंकडच्छायाई सप्पभाई समिरीयाई सउज्जोयाई पासादीयाई दरिसणिज्जाई अभिरुवाइं पडिरूवाई महया महया वासिक्कच्छत्तसमयाइं पण्णत्ताई समणाउसो ! से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पउमवरवेइया पउमयरवेइया। पउमयरवेइया णं भंते ! कि सासया असासया ? गोयमा ! सिय सासया सिय असासया। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय सासया सिय असासया ? गोयमा ! दब्धट्टयाए सासया; वण्णपज्जवेहि गंधपज्जवेहि रसपज्जवेहि फासपंज्जवेहि असासया से तेणटठेणं गोयमा! बुच्चइ-सिय सासया सिय असासया। पउमवरवेइया णं भंते ! कालमओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! ण कयावि णासी, कयावि पत्थि, ण कयावि न भविस्सइ। भुवि च, भवइ य, भविस्सइ य / धुवा नियया सासया अक्खया अन्वया प्रवटिया णिच्चा पउमवरवेदिया // (125) उस जगती के ऊपर ठीक मध्यभाग में एक विशाल पद्मवरवेदिका कही गई है। वह पद्मवरवेदिका आधा योजन ऊंची और पांच सौ धनुष विस्तार वाली है। वह सर्वरत्नमय है। उसकी परिधि जगती के मध्यभाग की परिधि के बराबर है। यह पद्मवरवेदिका सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, यावत् अभिरूप, प्रतिरूप है। उस पद्मवरवेदिका का वर्णन इस प्रकार है-उसके नेम (भूमिभाग से ऊपर निकले हुए प्रदेश) वज्ररत्न के बने हुए हैं, उसके मूलपाद (मूलपाये) रिष्टरत्न के बने हुए हैं, इसके स्तम्भ वैडूर्यरत्न के हैं, उसके फलक (पटिये) सोने चांदी के हैं, उसकी संधियाँ वज्रमय हैं, लोहिताक्षरत्न की बनी उसकी सूचियाँ हैं (ये सूचियाँ पादुकातुल्य होती हैं जो पाटियों को जोड़े रखती हैं, विघटित नहीं होने देती) ! यहाँ जो मनुष्यादि शरीर के चित्र बने हैं वे अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं तथा स्त्री-पुरुष युग्म की जोड़ी के जो चित्र बने हुए हैं वे भी अनेकविध मणियों के बने हुए हैं। मनुष्यचित्रों के अतिरिक्त जो चित्र बने हैं वे सब अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं। अनेक जीवों की जोड़ी के चित्र भी विविध मणियों के बने हुए हैं। उसके पक्ष-आजू-बाजू के भाग अंकरत्नों के बने हुए हैं / बड़े बड़े पृष्ठवंश ज्योतिरत्न नामक रत्न के हैं। बड़े वंशों को स्थिर रखने के लिए उनकी दोनों ओर तिरछे रूप में लगाये गये बांस भी ज्योतिरत्न के हैं / बांसों के ऊपर छप्पर पर दी लम्बी लकड़ी की पट्टिकाएँ चाँदी की बनी हैं। कंबाओं को ढांकने के लिए उनके ऊपर जो प्रोहाडणियाँ (आच्छादन हेतु बड़ी किमडियां) हैं वे सोने की हैं और पुंछनियाँ (निबिड आच्छादन के लिए मुलायम तृणविशेष तुल्य छोटी किमडिया वजरत्न की हैं, पुञ्छनी के ऊपर और कवेल के नीचे का आच्छादन श्वेत चाँदी का बना हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org